Child Tantrum: अनुशासित करने के लिए खुद उदाहरण बनिये
आज के युग में बच्चों को अनुशासित करने के लिए अपने उदाहरण से नेतृत्व करना आवश्यक है। अगर आप चाहती हैं कि आपका बच्चा डिनर टेबल पर करे तो आप भी अपनी थाली बेडरूम में ले जाना बंद करें। अगर आप चाहती हैं कि आपका बच्चा स्क्रीन छोड़ दे तो आपको भी स्क्रीन छोड़ना होगा, कम से कम जब आप काम न कर रही हों। अस्सी प्रतिशत पैरेंटिंग स्वयं मिसाल बनकर नेतृत्व करने में है। दृढ़ रहिये और गुस्सा मत कीजिये। हमें गुस्सा इसलिए आता है क्योंकि हम अपने बच्चों के बर्ताव को व्यक्तिगत तौर पर ले लेते हैं। अपनी भावनाओं को अनुशासन से अलग रखने की ज़रूरत है ताकि गुस्सा न आये। दृढ़ रहिये और अपने बच्चे को अपनी उम्मीदें प्यार से समझाइए। अगर आपका बच्चा अधिक स्क्रीन समय की मांग कर रहा है तो आपको गुस्सा करने की जरूरत नहीं है। प्यार से कहिये, “मुझे मालूम है कि तुम अधिक बीटा देखना चाहते हो लेकिन यह संभव नहीं है।” उसके नखरे को यूं ही गुजरने दो।
ज़िम्मेदारी का बोध कराएं
बच्चों को विकल्प दीजिये, सीमाएं तय कीजिये। शिशु अवस्था से ही बच्चे के लिए व्यवहार की सीमाएं व नियम निर्धारित कीजिये। खाने का समय, सोने का समय सब तय होने चाहिये। बच्चे को बताएं कि वह अपने खिलौने कैसे संभाले और परिवार के सदस्यों से किस तरह बात करे। बच्चे को सीमाओं के भीतर आजादी दीजिये ताकि उसमें ज़िम्मेदारी का बोध आये। आप जो उसे विकल्प देती हैं उन पर आपका नियंत्रण होना चाहिए। मसलन, बच्चा यह तो कह सकता है कि उसे अरहर की दाल पसंद नहीं लेकिन वह उसे थूक नहीं सकता। उन्हें सुधारने से पहले उनके साथ जुड़िये। जब बच्चे से कनेक्शन या जुड़ाव नहीं होता है तो वह आपके सुधारने के प्रयास पर प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं करेगा । अपने बच्चे से बांड करने के लिए विशेष समय निकालने की आवश्यकता नहीं है, अपने घर के कामों में उसे शामिल कीजिये। इससे रिश्ता बेहतर बनता है। ये कुछ प्रचलित कहावतें हैं जिनके आधार पर यह धारणा बनी है कि अगर छड़ी छोड़ दोगे तो बच्चा बिगड़ जायेगा। अफसोस यह है कि आज के आधुनिक युग में भी कुछ पैरेंट्स अपने बच्चों को अनुशासित करने के लिए छड़ी की जरूरत महसूस करते हैं।

इस सच्ची कहानी से समझिये…
मसलन, जब कोविड लॉकडाउन के बाद स्कूल फिर से खुलने लगे तो अंजली ने सोचा कि आखिरकार उन्हें कुछ राहत मिलेगी क्योंकि उनका 9 वर्ष का बेटा व्यस्त हो जायेगा लेकिन वह अपने बेटे के व्यवहार में परिवर्तन के लिए तैयार नहीं थीं। उनका बेटा जिद्दी व आक्रामक हो गया था और वह गालियां देना भी सीख गया था। ऐसे में जब वह आई-पैड पर खेलना चाहता और अंजली उसे याद दिलातीं कि ये आई-पैड के दिन नहीं हैं तो वह नखरे दिखाते हुए कहता कि ‘तुम बहुत बुरी मम्मी हो’। इस क़िस्म के झगड़े मां-बेटे में लगभग रोज़ाना ही होने लगे। अंजली अपने बेटे को डांटतीं और अक्सर उसे थप्पड़ मारतीं व कई बार तो उसने छड़ी का भी इस्तेमाल किया लेकिन इससे बेटे में कोई सुधार नहीं आया बल्कि वह और बिगड़ता चला गया। चार-पांच माह के संघर्ष के बाद अंजली ने एक काउंसलर से संपर्क किया और तब जाकर उसे अपने बेटे के व्यक्तित्व को समझने का अवसर मिला व उसे अनुशासित करने की बेहतर योजनाएं समझ में आयीं। अंजली बताती हैं, “मुझे एहसास हुआ कि ख़ामोशी चिल्लाने से बेहतर काम करती है। मैं अपने बेटे से कहती कि मैं ‘टाइम आउट’ ले रही हूं और उसके पास से चली जाती जिससे उसे समझ आ गया कि मैं वास्तव में क्या चाहती हूं।” अपने बच्चे को अनुशासित करने के लिए अंजली को जो संघर्ष करना पड़ा उससे आज लगभग सभी पैरेंट्स दो चार हो रहे हैं।
डांट या पिटाई से अधिक बिगड़ने की आशंका
पैरेंट्स के तनावग्रस्त रहने का सबसे बड़ा कारण यह है कि बच्चों को अनुशासित कैसे किया जाये? उन्हें अच्छे संस्कार कैसे दिए जाएं? लेकिन निरंतर टोकाटाकी, डांट या पिटाई करने से बच्चे सुधरते नहीं बल्कि उनके अधिक बिगड़ने की आशंकाएं बढ़ जाती हैं। भारत की अनेक पीढ़ियों ने ‘एक तगड़े चांटे’ के साथ परवरिश पायी है और आज भी अनेक लोगों को याद है कि अम्मा की चप्पल की मार ने कैसे उनके दिमाग के चक्षु खोल दिए थे। अब ज़माना बदल गया है, अनुशासित करने के पुराने नुस्खे अब काम नहीं करते हैं, उनकी एक्सपायरी डेट निकल चुकी है। इसके अनेक कारण हैं। आज के बच्चों पर डांट या थप्पड़ असर नहीं करता है। वह चिल्ला सकते हैं या पैरेंट्स पर भी पलटकर वार कर सकते हैं और उम्मीद से उल्टा भी कर सकते हैं। दूसरा यह कि शोध व अपने अनुभवों से पैरेंट्स भी अब अधिक जागरूक हो गए हैं कि सख्त सजाएं जीवनभर के लिए गहरा दाग बन सकती हैं और बच्चे के आत्मविश्वास को छिन्न-भिन्न कर सकती हैं। इसलिए पैरेंट्स बच्चों को अनुशासित करने के लिए नई व अधिक सभ्य तकनीक सीख रहे हैं लेकिन यह दैनिक संघर्ष है।
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अच्छा काम करती जादू की झप्पी
अंजली बताती हैं, “मेरा उस पीढ़ी से संबंध है जिसकी परवरिश अलग ढंग से की जाती थी। हम अपने पैरेंट्स से कोई सवाल नहीं करते थे लेकिन अब हर चीज पर हमारे बच्चे हमसे सवाल करते हैं। हमें बहुत सावधान रहना पड़ता है और उचित शब्दों का प्रयोग करना पड़ता है कि बच्चे कहीं बहक न जायें। अपना काम निकालने के लिए बहुत होशियारी से प्रबंधन करना पड़ता है। मुझे अपने बेटे से अधिक स्मार्ट बने रहने के लिए निरंतर प्रयास करना पड़ता है।” मुझे अनुशासित करने के लिए मेरी मां को सिर्फ मुझे घूरने की जरूरत पड़ती थी या पापा से शिकायत करने की धमकी पर्याप्त होती थी, मेरी शरारत पर विराम लगाने के लिए। इतने ही डर से मेरी पैंट गीली होने का अंदेशा बढ़ जाता था। आज अगर मैं अपने बच्चों को घूरती हूं तो वह मेरी नकल करके हंस देते हैं। मेरे गुस्से का शून्य असर पड़ता है। मैंने अपने अनुभव से सीखा है कि बच्चों से अगर सहयोग चाहिए तो ‘एक झन्नाटेदार थप्पड़’ की जगह ‘एक तगड़ी जादू की झप्पी’ अच्छा काम करती है।
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