Bollywood Movie: ईमानदारी से जनसंख्या की समस्या पर फोकस ‘हमारे बारह’
Bollywood Movie: पिछले दिनों अन्नू कपूर स्टारर फिल्म ‘हमारे बारह’ पर कर्नाटक सरकार ने रोक लगा दी थी। हालांकि पहले इसकी रिलीज पर बॉम्बे हाई कोर्ट ने भी रोक लगायी थी लेकिन बाद में फिल्म के दो सीन काटने और फिल्म सेंसर बोर्ड से फिल्म के लिए नया प्रमाणपत्र जारी करने के लिए कहकर फिल्म को रिलीज करने की इजाजत दे दी गई।
हालांकि कर्नाटक सरकार ने कहा है कि यह फिल्म साम्प्रदायिक सौहार्द बिगाड़ने का काम कर सकती है। इसलिए वह अपने यहां इसके प्रदर्शन की इजाजत नहीं देगी। हां, दो सप्ताह बाद इस पर दोबारा विचार किया जा सकता है, दूसरी जगहों के प्रदर्शन के बाद के माहौल को देखकर। कर्नाटक सरकार ने यह कार्रवाई कर्नाटक सिनेमा रेगुलेशन एक्ट 1964 के मुताबिक किया। इस फिल्म में मुख्य भूमिका में अनु कपूर हैं। उनके अलावा मनोज जोशी, परितोष त्रिपाठी और पार्थ सामथान ने भी अभिनय किया है। ‘हमारे बारह’ फिल्म दरअसल जनसंख्या विस्फोट का मुद्दा उठाती है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि जनसंख्या विस्फोट भारत जैसे देश में कई तरह की समस्याओं की जड़ में है। यह जनसंख्या ही है जिसके कारण कैसा भी विकास हो जाए पर वह वास्तव में जमीन में दिखाई नहीं पड़ता।

जनसंख्या को लेकर सजगता कम
समस्या यह है कि जब देश में जनसंख्या विस्फोट की बात आती है तो यह मानकर चला जाता है कि जनसंख्या तो मुस्लिम ही बढ़ाते हैं क्योंकि पिछले दो ढाई दशकों में कुछ लोगों द्वारा समाज के दिलोदिमाग में यह बात इस तरह से बिठा दी गई है कि अगर जनसंख्या विस्फोट की बात हो तो लोग बिना कुछ कहे ही मान लें कि यह काम तो एक समुदाय विशेष का ही हो सकता है जबकि यह बात सही नहीं है।
चूंकि मुस्लिम समाज में गरीब लोगों की तादाद ज्यादा है और गरीब लोग अपनी आर्थिक सुरक्षा के लिए ज्यादा से ज्यादा बच्चा पैदा करते हैं। इसलिए स्वाभाविक रूप से मुस्लिमों में जनसंख्या को लेकर सजगता कम है। हालांकि अकेले गरीब मुस्लिम ही ऐसा नहीं करते, गरीब हिंदुओं के यहां भी अमीर हिंदुओं के मुकाबले काफी ज्यादा बच्चे होते हैं। चूंकि मुस्लिम देश में ज्यादा गरीब हैं, इसलिए निःसंदेह वहां यह समस्या कुछ ज्यादा है लेकिन हम इस वजह को नहीं समझते बल्कि दिलोदिमाग में हमारे ऐसा भर दिया गया है कि देश में जनसंख्या विस्फोट के कारण तो सिर्फ मुसलमान हैं।

सही अर्थ निकलना मुश्किल
जब इस तरह की धारणाएं बन जाती हैं तब किसी सही बात का भी सही अर्थ निकलना मुश्किल हो जाता है। इसलिए फिल्म ‘हमारे बारह’ चाहे जितनी ईमानदारी से जनसंख्या विस्फोट की समस्या पर आगाह करती हो लेकिन उसे देखकर निश्चित रूप से कुछ लोगों के दिलोदिमाग में मुसलमानों के प्रति नफरत की धारणाएं गहरी हो सकती हैं। इसलिए बेहतर यही है कि ऐसी फिल्मों के प्रदर्शन से बचा जाए। हालांकि अन्नू कपूर का दावा है कि किसी धार्मिक समुदाय को टारगेट नहीं किया गया बल्कि ईमानदारी से जनसंख्या की समस्या पर फोकस किया गया है। फिलहाल इस तरह के दावे पहले भी कुछ फिल्मों को लेकर होते रहे हैं मगर उनका समाज में असर एक समुदाय विशेष के पक्ष या विरोध में ही होता रहा है।
इसलिए फिल्मकारों को ऐसी दुधारी फिल्मों से बचना चाहिए। इस तरह की फिल्में वास्तव में किसी समाधान की बजाय जल्द से जल्द पैसे कमाने की फिराक में होती हैं। इसलिए इनके निर्माताओं को कतई फर्क नहीं पड़ता कि उनकी फिल्मों से समाज का एक वर्ग भड़क सकता है।यह एक खतरनाक आदत है और इसमें रोक लगनी ही चाहिए। इसकी एक वजह यह भी है कि पिछले कुछ सालों में ऐसी एक नहीं कई फिल्में आईं जब निर्माता निर्देशक देश के शुभचिंतक बनने का नाटक करके समाज के एक बड़े वर्ग को विलेन बना दिया और दूसरे को उकसाकर थियेटर तक लाने की कोशिश की ताकि भरपूर कमाई की जा सके।
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माहौल को कैश कराने के लिहाज से बनाई फिल्में
‘द केरला स्टोरी’, ‘बहत्तर हूरें’, गांधी गोडसे एक युद्ध’, ‘फराज’, ‘अफवाह’, ‘सिर्फ एक बंदा बाकी है’। ऐसी कई फिल्में सिर्फ उस माहौल को कैश कराने के लिहाज से आनन-फानन में बनायी गईं जो माहौल हिंदू, मुस्लिम की बाइनरी में बंट गया था। हालांकि या तो अपना देश इतना मैच्योर हो गया है कि इस तरह की घटना से उत्तेजित नहीं होता या फिर लोगों को इससे कोई फर्क ही नहीं पड़ता कि वे फिल्म के रूप में क्या देखते हैं, वह फिल्म को मनोरंजन तक ही सीमित मानते हैं।
ऊपर जिन फिल्मों को देश की महत्वपूर्ण समस्याओं से नत्थी करके वास्तव में एक वर्ग को भड़काकर थियेटर लाने के लिए बनायी गई थीं वैसी ही कुछ फिल्मों में- ‘रामसेतु’, ‘ब्रह्मास्त्र’, ‘लाल सिंह चड्ढ़ा’, ‘थैंक गाड’, और ‘होली काऊ’ जैसी फिल्में भी थीं। इन फिल्म बनाने वालों का चाहे जितना बड़ा दावा रहता हो कि ये फिल्में समाज के ज्वलंत समस्याओं को एड्रेस करती हैं लेकिन हकीकत में इनका इन सबसे कुछ लेना-देना नहीं होता। ऐसी फिल्में देश के लिए कोई सॉल्यूशन नहीं देतीं बल्कि ये फिल्म के एक पक्ष को भड़काने की कोशिश करती हैं ताकि आवेश में आया हुआ समाज उसकी फिल्मों को न सिर्फ जमकर देखे बल्कि अपने जैसे ही कई दूसरों को दिखाए।

हम देश के प्रति कितने जिम्मेदार ?
इस तरह फिल्म बनाने वाला शख्स तो रातोंरात इस शॉर्टकट के जरिये कामयाब हो जाए लेकिन मत भूलिए कि ऐसे प्रयास आम लोगों के बीच सिनेमा को भी मनोरंजन की बजाय अलग-अलग जाति और समुदायों के चश्मे से देखने लगते हैं। यही नहीं, जब हम किसी समस्या का सरलीकरण कर यह बताने या दिखाने की कोशिश करते हैं कि हम देश के प्रति कितने जिम्मेदार हैं और देश की वास्तविक समस्या को हल करने के लिए उसे पब्लिक के बीच ले जा रहे हैं लेकिन हकीकत यह होती है कि ये लोग फिल्म को यही ईमानदारी नहीं प्रदान करते।
फिल्म सिर्फ अपनी कमाई के लिए पूरी समस्या को एक रंग में रंगकर पेश करने की कोशिश करती है। इसलिए फिल्मों के जरिये किसी समस्या के समाधान का यह विचार झूठा ही नहीं खतरनाक भी साबित होता है। इसलिए फिल्मकार मेहरबानी करके देश को समस्याओं से मुक्ति दिलाने के लिए अपनी एकतरफा नजर से फिल्में न बनाएं। यही देश के लिए उपकार होगा।
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