Indian Eyesight – गोल रेटिना का शेप लंबा या अंडाकार हो गया
Indian Eyesight: वास्तव में बिगड़ी लाइफस्टाइल और कामकाज की नई संस्कृति के कारण लैपटॉप और मोबाइल फोन की कृत्रिम रोशनी का बोझ हमारी आंखों को हर समय ढोना पड़ता है। इसका नतीजा यह होता है कि चाहे बच्चे हों या किशोर अथवा किसी भी उम्र के लोग, हर किसी आंखों में इन दिनों झट से चश्मा चढ़ जाता है। अगर हम अपनी रोजमर्रा की जिंदगी कुदरती ढंग से जिएं तो 40 साल के बाद आंखों को चश्मे की जरूरत पड़ती है। आंखों के दिन-रात अंधाधुंध इस्तेमाल के कारण बहुत कम उम्र से ही हमारी नजर धुंधली पड़ जाती है। चीजें दोहरी दिखने लगती हैं। चमकदार रोशनी हमें परेशान करती है। सिरदर्द जैसी समस्याएं भी आंखों की कमजोरी का ही नतीजा होती हैं।
बिगड़ी लाइफस्टाइल और हमारी जिंदगी में स्क्रीन की बढ़ी ज्यादा से ज्यादा भागीदारी ने हमारी आंखों पर बेहिसाब बोझ डाला है। इस कारण हमारी आंखों की पुतलियों का मूल आकार बिगड़कर लंबा हो गया है या आंखों की कार्निया की वक्रता समय से बहुत पहले ही बढ़ जाती है। इसी का नतीजा है हम भारतीयों की आंखों पर चश्मों की भरमार है। इस तरह देखें तो जिन आंखों को पहले पूरे दिन में बमुश्किल कुछ खास चीजों को देखने के लिए कुछ मिनटों के लिए ही गहराई से फोकस करना पड़ता था, आज आम लोगों को भी दिन में 6 से 8 घंटे तक अपनी आंखों को स्क्रीन में व्यस्त रखना पड़ता है। आंखों की इस कदर व्यस्तता, उन्हें न सिर्फ जरूरत से ज्यादा थका देती है बल्कि देखने के इतने ज्यादा दबाव में आंखों की बायलॉजिकल बनावट को ही बदल दिया है।
बच्चे में मायोपिया की आशंका 6 गुना ज्यादा
वैज्ञानिकों के मुताबिक जरूरत से ज्यादा आंखों के इस्तेमाल से हमारे गोल रेटिना का शेप लंबा या अंडाकार हो गया है या फिर हमारी पुतली जरूरत से ज्यादा छोटी हो गई है। आंखों की इस बदली हुई शेप या देखने के बोझ के कारण उनकी बनावट बदलने लगी है जिस कारण रेटिना पर साफ तस्वीर नहीं बन पाती। इसे तकनीकी भाषा में मायोपिया, हाइपरमेट्रोपिया, एसटिगमेटिज्म या प्रेसबायोपिया जैसे नेत्र संबंधी समस्याएं कहते हैं। पहले ये ज्यादातर समस्याएं आनुवांशिक होती थीं। आज बिगड़ती लाइफस्टाइल के कारण 50 फीसदी से ज्यादा लोगों में ये समस्याएं देखने को मिल रही हैं। आंखों पर दिन-रात बढ़े इस बोझ के कारण बहुत कम उम्र में ही आज हम सबकी आंखों पर चश्मे चढ़ गए हैं।
अगर माता-पिता में किसी एक को मायोपिया है तो बच्चे में इसकी आशंका 6 गुना ज्यादा बढ़ जाती है। हालांकि चश्मा लगाने से आंखों को फायदा ही होता है क्योंकि चश्मा चीजों को उनके मूल आकार से बड़ा करके दिखाता है। इस कारण पढ़ने में आसानी होती है। अगर सही तरह से चश्मा लगाया जाए तो इससे आंखें खराब नहीं होतीं उल्टे सही रहती हैं लेकिन आंखों पर चश्मे का होना एक तो यह बताता है कि हमारी आंखों में कोई समस्या है। इसके अलावा चश्मे के साथ भी हम जो लापरवाही बरतते हैं, उसके कारण चश्मा लगने के बावजूद हमारी आंखों में समस्याएं बनी रहती हैं।
Read more: Mental Health: एक्सरसाइज करने से स्ट्रांग रहेगी मम्मियों की मेंटल हेल्थ
45 फीसदी लोग चश्मा लगा रहे हैं
छोटे बच्चों के किसी स्कूल में चले जाइए तो आपको यह देखकर हैरानी होगी कि लगभग हर तीसरे बच्चे को आज की तारीख में चश्मा लगा हुआ है जबकि आज से 25-30 साल पहले 50 छात्रों की किसी कक्षा में मुश्किल से दो-तीन बच्चों की आंखों पर ही चश्मा दिखा करता था। यह हाल सिर्फ छोटे बच्चों का ही नहीं है। कॉलेज या दफ्तरों में भी देखिए तो हर दूसरा नौजवान चश्मे में नजर आयेगा। इनमें महज कुछ ने शौकिया यानी बिना पावर का चश्मा लगा रखा होगा वरना 95 फीसदी से ज्यादा चश्मा नजर की समस्या के चलते ही पहन रखा होगा। आखिर यह कौन सी प्रगति है कि पिछले कुछ दशकों में हम भारतीयों की आंखों में चश्मे लगते ही जा रहे हैं? तथ्यों से संबंधित मशहूर वेबसाइट स्टेटिस्टा के मुताबिक साल 2020 में किये गए एक व्यापक सर्वेक्षण में पाया गया कि भारत में करीब 45 फीसदी लोग चश्मा लगा रहे हैं।
दूसरे शब्दों में 2020 में 55 करोड़ से ज्यादा लोग चश्मे लगा रहे थे। इन चश्मा लगाने वालों में बड़ी तादाद स्कूल जाने वाले छोटे बच्चों, कॉलेज छात्रों और युवाओं की थी। सवाल है आखिर पिछले डेढ़-दो दशकों में इस कदर आंखों में चश्मे क्यों बढ़े? इसकी वजह यह है कि पिछले कुछ दशकों में हमारी लाइफस्टाइल इतिहास के किसी भी दौर के मुकाबले बिल्कुल बदल गई है। हाल के दशकों में इंसान की आंखों का इतना ज्यादा इस्तेमाल होने लगा है जितना पहले कभी नहीं हुआ था। आप कहेंगे क्या मतलब, आंखें तो इस्तेमाल के लिए ही हैं, इसमें कम-ज्यादा का क्या मतलब है? मतलब है। दरअसल कुदरत ने हमें आंखें अपने इर्द-गिर्द की चीजों को देखने के लिए दी हैं।
चीजें देखना बहुत कम हो गया
हमारी आंखों का कुदरती डिजाइन कुछ इस तरह से किया गया है कि कि ये दूर की चीजें ज्यादा सहजता से देखती हैं बनिस्बत पास की चीजों के। शायद इसका एक कारण यह रहा होगा कि इंसान अपने शुरुआती विकास के दौर में खूंखार जानवरों और अपने शिकार को बहुत दूर से ही देख लेना चाहता रहा होगा। इसलिए आंखें दूर के देखने के अनुकूल हो गईं। उन दिनों नजदीक की ज्यादा चीजें देखने को थी ही नहीं क्योंकि उन दिनों पढ़ने-लिखने जैसी कोई गतिविधि तो थी नहीं। बस, आंखों का मूलतः इस्तेमाल शिकार और दुश्मन को देखने के लिए ही होता था।
पिछली कुछ सदियों में इंसान ने आमूलचूल विकास किया। आज दूर की चीजें देखना बहुत कम और लगभग गैर जरूरी हो गया है जबकि आज आंखों का काम करीब करीब 97-98 फीसदी तक नजदीक की चीजों को ही देखने का रह गया है। जब तक दुनिया में लिखने-पढ़ने की शुरुआत नहीं हुई थी तब तक आंखों को बहुत नजदीक से देखने की बहुत सीमित वजहें होती थीं लेकिन जैसे ही लिखने-पढ़ने और फिर करीब चार सदी पहले किताबों की छपाई आदि का चलन शुरू हो गया तो आंखों का काम पढ़ने की वजह से बहुत ज्यादा बढ़ गया। लिखना भी इसी में शामिल है।
फोन की स्क्रीन तक सिमट गयी आंखें
फिर भी यह इतना नहीं था कि हमारी आंखों पर उनकी क्षमता से कई गुना ज्यादा बोझ पड़ता लेकिन जब से मोबाइल फोन का आविष्कार हुआ है और हमारी अधिकतम दुनिया एक छोटे से मोबाइल फोन की स्क्रीन तक सिमट गयी तब से आंखों के लिए नजदीक से देखने का काम इतना ज्यादा बढ़ गया है कि उन्हें मानव इतिहास के किसी भी दौर से अनगिनत गुना ज्यादा देखना पड़ता है। यही कारण है कि आज सिर्फ हमारे देश में ही नहीं बल्कि साल 2021 में पूरी दुनिया में 110 करोड़ लोग ऐसे थे जो आंखों की गंभीर समस्याओं से जूझ रहे थे।
इनमें से 59 करोड़ लोगों की आंखों में दूर दृष्टि की समस्या थी तो 51 करोड़ लोगों की आंखों में पास देखने की समस्या थी। इन बीमार लोगों में से 4 करोड़ से ज्यादा लोग जो आमतौर पर नजदीक देखने की समस्या से गुजर रहे थे, उन्होंने अपनी रोशनी खो दी थी। आज क्या बड़े, क्या छोटे और क्या मध्य उम्र के लोग, सभी के हाथ में मोबाइल है और सब दिन रात अपनी आंखें मोबाइल में ही गड़ाये रहते हैं। एक दौर में 10 साल तक के जो बच्चे पूरे दिन में महज कुछ देर या कुछ घंटे ही किताबें पढ़ने का काम करते थे, बाकी समय उनकी ज्यादातर शारीरिक गतिविधियां हुआ करती थीं, आज इतनी कम उम्र के बच्चे भी अपने पर्सनल मोबाइल फोन से दिन-रात चिपके रहते हैं।
Read more: Brain Tumours: मस्तिष्क के ‘ट्यूमर’ को नाक के रास्ते निकाला
डिजिटल दौर में सब कुछ कम्प्यूटरमय
आज की तारीख में 10 से 25 साल तक के लोगों के हर दिन करीब 4 से 6 घंटे मोबाइल या लैपटॉप की स्क्रीन को देखते हुए ही गुजरते हैं। इतिहास के किसी भी दौर में आंखें लगातार इतने इतने घंटों तक कुछ पढ़ने या देखने का काम अब से पहले कभी नहीं किया। आंखों को दिन-रात स्क्रीन देखने का यह जो बोझ बढ़ा है, असल में सबसे बड़ा कारण यही है कि हमारे इर्द-गिर्द हर तरफ लोगों की आंखों पर चश्मे ही चश्मे दिख रहे हैं। आज शहरों में 10 फीसदी बच्चे भी शाम को घर से बाहर खेलने नहीं जाते। ज्यादातर बच्चे अपने मोबाइल फोन में ही व्यस्त रहते हैं। हमारे युवाओं की लाइफस्टाइल भी ऐसी हो गई है कि वे दिन के ज्यादातर समय दफ्तरों में कृत्रिम रोशनी में रहते हैं और पूरे समय स्क्रीन में ही लिखते-पढ़ते हैं क्योंकि इस डिजिटल दौर में सब कुछ कम्प्यूटरमय हो गया है।
- Shashi Tharoor: सप्ताह में 5 दिन और 8 घंटे हो काम का समय - November 4, 2024
- Online World: इंटरनेट की रंग बिरंगी दुनिया में ताकझांक खतरनाक - November 4, 2024
- MarketPlace: डिजिटल मार्केटिंग का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं ‘मार्केटप्लेस’ - November 4, 2024