Mental Health: कम उम्र में स्मार्टफोन की लत खतरनाक
हाल ही में हुए एक अध्ययन में खुलासा हुआ है कि कम आयु में फोन मिलने का अर्थ है, वयस्क होने पर अधिक मानसिक स्वास्थ्य समस्याएं, विशेषकर आत्महत्या करने के विचार, दूसरों के प्रति अधिक आक्रामक होना और वास्तविकता से कटे होने का एहसास, ‘सामाजिक आत्म’ का पूर्णतः खराब बोध, इस तरह से व्यक्ति खुद को देखता है और दूसरों से रिलेट करता है। इस सर्वे का विचलित करने वाला निष्कर्ष यह है कि बच्चे को जितनी कम उम्र में स्मार्टफोन दिया जायेगा उतनी अधिक आशंका इस बात की रहेगी कि युवा वयस्क होने पर वह मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं से ग्रस्त हो जायेगा।
इसलिए अगर आप यह सोचते हैं कि बच्चे को जल्द स्मार्टफोन या टेबलेट देने से उसे डिजिटल बढ़त मिल जायेगी तो आप अपने इस फैसले के काले पहलू पर भी विचार कर लें। इस अध्ययन के लिए 40 से अधिक देशों से 27,969 युवा वयस्कों का डाटा एकत्र किया गया। इसमें लगभग 4,000 भारत के भी हैं। ये सभी 18 से 24 वर्ष आयु वर्ग के हैं। मूल्यांकन के लिए अनेक लक्षणों व मानसिक क्षमताओं को कवर किया गया और फिर उन्हें जोड़कर मेंटल हेल्थ कोशंट (एमएचक्यू) निकाला गया। फिर इस स्कोर की तुलना उस आयु से की गई जब वालंटियर को पहला स्मार्टफोन या टैबलेट मिला था। युवतियां अधिक प्रभावित प्रतीत हुईं।

लड़कियों पर ज्यादा असर
जिन लड़कियों को 6 वर्ष की आयु में अपना पहला स्मार्टफोन मिला था उनमें से 74 प्रतिशत युवा वयस्क होने पर गंभीर स्वास्थ्य चुनौतियों का अनुभव कर रही थीं। उनका स्कोर एमएचक्यू रेंज के ‘रोगी’ या ‘संघर्षरत’ के भीतर था। जिन्हें स्मार्टफोन 10 व 15 वर्ष की आयु में मिला उनका प्रतिशत क्रमशः 61 व 52 था। जिन्हें 18 वर्ष की आयु में पहली बार स्मार्टफोन मिला उनमें 46 प्रतिशत युवतियां ही मानसिक रूप से रोगी या संघर्षरत थीं। जिन लड़कों को 6 वर्ष की आयु में अपना पहला स्मार्टफोन मिला उनमें से लगभग 42 प्रतिशत युवा वयस्क होने पर मानसिक रूप से रोगी या संघर्षरत के दायरे में आये।
18 वर्ष की आयु में पहला स्मार्टफोन मिलने पर यह प्रतिशत गिरकर 36 रह गया। यह पूर्णतः स्पष्ट नहीं है कि यह जेंडर अंतर किस लिए है? यह संभव है कि महिलाएं जैविक दृष्टि से अधिक सामाजिक परवरिश के लिए बनी हों, इसलिए ज्यादा प्रभावित होती हैं। यह अध्ययन ऐसे समय में आया है जब 2010-2014 में आरंभ हुए इंटरनेट संसार में हर आने वाली युवा पीढ़ी के मानसिक स्वास्थ्य में निरंतर पतन देखने को मिल रहा है। यह बात भारत के लिए विशेष रूप से प्रासंगिक है। पिछले साल मैकअफ़ी ग्लोबल कनेक्टेड फैमिली अध्ययन जारी किया गया था। इसमें बताया गया था कि भारतीय बच्चों (10-14 वर्ष आयु वर्ग) में स्मार्टफोन का प्रयोग 83 प्रतिशत पर है जो कि अंतरराष्ट्रीय औसत 76 प्रतिशत से 7 प्रतिशत अधिक है।
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कारणों पर रोशनी नहीं डालता अध्ययन
सेपियन लैब्स का अध्ययन यह तो बताता है कि कम उम्र में स्मार्टफोन मिलना और युवा वयस्क होने पर मानसिक समस्याओं से जूझने के बीच संबंध है लेकिन वह इसके कारणों पर रोशनी नहीं डालता है। बहरहाल, स्मार्टफोन यूसेज टाइम डाटा से मालूम होता है कि बच्चे रोजाना औसतन 5 से 8 घंटे ऑनलाइन रहते हैं। यानी साल में लगभग 2,950 घंटे। ज़ाहिर है स्मार्टफोन से पहले यह समय किसी न किसी तरह परिवार व दोस्तों के साथ गुज़ारा जाता था।
सामाजिक व्यवहार जटिल होता है और उसे सीखना व प्रैक्टिस करना होता है। इस संदर्भ में फुटबॉल की ही मिसाल लें। 5 साल की उम्र में हर कोई गेंद को किक कर सकता है व दौड़ सकता है लेकिन अच्छा स्किल व स्टैमिना विकसित करने के लिए प्रैक्टिस करनी होती है। बच्चों को सामाजिक प्रैक्टिस नहीं मिल रही है। इसलिए वह सामाजिक संसार में संघर्ष करते हुए दिखायी देते हैं।
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देर से देने में ही भलाई
इस अध्ययन से पेरेंट्स के लिए यह स्पष्ट संदेश है कि वह अपने बच्चों को जितना अधिक देरी से पहला स्मार्टफोन देंगे उतना ही बेहतर होगा। इसमें कोई दो राय नहीं कि सोशल मीडिया की लत गंभीर मनोवैज्ञानिक नुकसान पहुंचाती है। इससे दैनिक भूमिकाएं व रूटीन भी प्रभावित होती है। बावजूद इसके कि सोशल मीडिया जानकारी का भी अच्छा स्रोत है और सामाजिक रिश्ते बनाने का भी अवसर देता है। समस्या उस समय उत्पन्न होती है
जब इसका इस्तेमाल आयु के मुताबिक नहीं होता है और यह समस्या निरंतर बढ़ती जा रही है। युवा वयस्कों में डिप्रेशन, एंग्जायटी, आत्महत्या करने की इच्छा, दूसरों के प्रति आक्रामक होना आदि में निरंतर वृद्धि हो रही है। इसे नियंत्रित करने का एक ही तरीका है कि बच्चों का स्क्रीन टाइम सीमित किया जाये, उन्हें खेल के मैदान में लाया जाये।
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