Neglected tropical diseases: लाखों लोगों का स्वास्थ्य अधिकार खतरे में
Neglected tropical diseases: अपने देश में पिछले एक दशक से एनटीडी (निग्लेक्टिड ट्रॉपिकल डिसीसिस) की रोकथाम और उन्मूलन के लिए कई कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं लेकिन अभी तक ऐसी स्थिति नहीं आयी कि कहा जा सके कि हमने इसकी भयावहता पर काबू पा लिया है। इसे इस उदाहरण से ही समझा जा सकता है कि कालाजार की रोकथाम के लिए साल 2017 को अंतिम डेडलाइन घोषित किया गया था लेकिन अब भी देश कालाजार से पूरी तरह से मुक्त नहीं हो सका। आज भी बड़े पैमाने पर कालाजार के मामले बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश तथा कई अन्य जगहों पर देखने को मिल रहे हैं। कई क्षेत्रों में ऐसी स्थितियां हैं कि इन बीमारियों के प्राथमिक उपचार की भी सुविधा मौजूद नहीं है। जाहिर है इन जानलेवा बीमारियों के उन्मूलन पर अभी हमारी मौजूदा सरकार और संभवतः आने वाली सरकारों को भी बहुत कुछ करना होगा तभी स्वास्थ्य एक बड़ी आबादी के लिए मौलिक अधिकार की गरिमा हासिल कर सकता है। दुनियाभर में लाखों लोगों का स्वास्थ्य अधिकार तेजी से खतरे में पड़ रहा है। सम्मानजनक जीवन जीने के लिए स्वास्थ्य का मौलिक अधिकार होना बहुत जरूरी है। जब तक स्वास्थ्य मौलिक अधिकार नहीं होगा तब तक दुनियाभर की सरकारें इस पर उतना ध्यान नहीं देंगी जितनी देनी चाहिए।
2 अरब से ज्यादा आबादी पर संकट
कुछ वर्ष पूर्व आई कोरोना महामारी ने यह साबित कर दिया है कि दुनिया भले तकनीकी रूप से कितनी ही विकसित क्यों न हो गई हो और आधुनिक मेडिकल साइंस भले ही कितने नये शिखरों को छू रहा हो, आज भी दुनिया के स्वास्थ्य परिदृश्य की हकीकत यह है कि करीब 150 देशों की 2 अरब से ज्यादा आबादी पर दर्जनों जानलेवा बीमारियों की तलवार लटकी हुई है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के एक अनुमान के मुताबिक इसमें सबसे ज्यादा लोग ऊष्णकटिबंधीय बीमारियों से ग्रस्त हैं जिन्हें निग्लेक्टिड ट्रॉपिकल डिसीसिस की श्रेणी में रखा गया है। इन पर हर साल 100 से ज्यादा विकासशील देश अरबों डॉलर खर्च कर देते हैं लेकिन ये बीमारियां नियंत्रण में नहीं आ रहीं क्योंकि इनके लिए जिस तरह की रिसर्च की जरूरत है, उतना पैसा रिसर्च पर खर्च करने के लिए नहीं हैं। ये जानलेवा बीमारियां हैं डेंगू, ट्रेकोमा (आंखों का रोग), फाइलेरिया (मनुष्य तथा पशुओं के पेट में चिपकने वाला एक प्रकार का केंचुआ) और इसी तरह की आंखों, पेट और शरीर के अन्य अंगों को अपना शिकार बनाने वाली कई दूसरी बीमारियां।

गरीबों को अपना शिकार बनाती
ये बीमारियां आमतौर पर गरीब तबके के लोगों को अपना शिकार बनाती हैं जो अमूमन दुष्कर स्थितियों में जीवनयापन करते हैं। गंदगी, साफ एवं शुद्ध पेयजल की अनुपलब्धता, अशुद्ध हवा तथा स्वास्थ्य संबंधी सेवाओं और दवाओं की भारी कमी के कारण ये बीमारियां कमजोर इम्यून सिस्टम वाले गरीब लोगों को बहुत जल्दी अपना शिकार बना लेती हैं। ये बीमारियां लोगों की शारीरिक, मानसिक और आर्थिक स्थिति पर बुरा असर तो डालती ही हैं, बड़ी संख्या में लोगों को शारीरिक रूप से विकृत भी कर देती हैं। गरीबी रेखा से नीचे जीवनयापन करने वाले और घरेलू तथा पालतू जानवरों के संपर्क में रहने वाले ग्रामीण लोग इन बीमारियों का शिकार ज्यादा होते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन एक दशक पहले से इन खतरनाक बीमारियों पर नजर रखे है और लगातार इनके निर्मूलन हेतु कंपेन कर रहा है लेकिन पर्याप्त फंड न जुटने के कारण तेजी से रिसर्च और टीकाकरण नहीं हो पा रहा जो मामूली सी शुरुआत के साथ इंसान पर घेरा डालने वाली बीमारियों पर लगाम लगायी जा सके।
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2013 में हुआ था योजना का खाका तैयार
डब्ल्यूएचओ ने मई 2013 में ही अपनी 66वीं वर्ल्ड हेल्थ एसेंबली के दौरान एक प्रस्ताव पास किया था जिसे डब्ल्यूएचए-66.12 के तहत इसके सदस्य देशों को एकजुट होकर विश्व स्तर पर इन बीमारियों से ग्रस्त लोगों के उपचार और उनके स्वास्थ्य में सुधार के लिए अनुदान देने की एक योजना का खाका तैयार किया था। हालांकि जितने अनुदान की जरूरत थी, वह नहीं जुटाया जा सका। विश्व स्वास्थ्य संगठन इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए लगातार प्रयासरत है। 28 मई, 2016 को 69वीं वर्ल्ड हेल्थ एसेंबली में माइसिटोमा (फफूंदी से पैदा होने वाले रोग को) एक नयी एनटीडी (निग्लेक्टिड ट्रॉपिकल डिसीसिस) के रूप में चिन्हित किया गया। एनटीडी यानी ट्रॉपिकल बीमारियों को अगर भारत के संदर्भ में देखा जाए तो हमारे यहां 4 करोड़ से भी ज्यादा लोग इनकी चपेट में हैं।
फार्मास्यूटिकल क्षेत्र के लिए लाभ
ये बीमारियां ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों के निचले तबके की बीमारियों के रूप में जानी जाती हैं। इसलिए इन बीमारियों से गंभीर रूप से पीड़ित होने के बावजूद हाशिये पर रहने वाले ये बीमार लोग न तो अपने स्वास्थ्य के संबंध में किसी से गुहार लगा पाते हैं और न ही प्रशासन से इस संबंध में किसी तरह का कोई सवाल पूछ पाते हैं। इन बीमारियों को गरीब लोग भगवान का अभिशाप समझकर ताउम्र भुगतने के लिए अभिशप्त रहते हैं। ये बीमारियां निम्न तबके के लोगों को अपना शिकार ज्यादा बनाती हैं। इसलिए इनके अनुसंधान कार्यों में लगीं विभिन्न संस्थाएं और विभिन्न फार्मस्यूटिकल कंपनियां उस तरह से चिंतित और संवेदनशील नहीं होतीं जैसे कुछ उन बीमारियों को लेकर होती हैं जो आर्थिक रूप से सम्पन्न लोगों को होती हैं। गरीब लोगों को होने वाली ये बीमारियां फार्मास्यूटिकल क्षेत्र के लिए लाभ का सौदा नहीं है।
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