Outdoor Eating: खानपान में लापरवाही से कंपनियों को बड़ा नुकसान
Outdoor Eating: आधुनिक या ग्लोबल बनने के चक्कर में कम बनाकर ज्यादा खाने की संस्कृति का शिकार न हों। इसका फायदा नहीं, नुकसान ही नुकसान है। जहां तक हो सके घर का बना खाना खाएं, बाहर का खाना खाएं तो कम खाएं और उससे पहले जूस, लस्सी, छाछ, सूप, नारियल पानी, नीबू पानी पी लें या सलाद इत्यादि खा लें, फिर कम से कम मसालेदार और ऐसा भोजन चुनें जो रेशेदार हो। बाहर खाया जाने वाला खाना बहुत तला-भुना कतई न हो। यह आदत आपके स्वास्थ्य के भविष्य के साथ-साथ देश और आपकी कंपनी तथा आपकी प्रोफेशनल जिंदगी के लिए भी बेहतर है।
हालांकि यह महज उनके निजी नुकसान की बात भी नहीं है। कर्मचारियों की इस तरह अपने खानपान में बरती जा रही है लापरवाही के कारण, अनुमान है कि निजी कंपनियों को हर साल करीब 142 अरब डॉलर से ज्यादा की चपत लग रही है, क्योंकि कामकाज के दौरान बाहर से भोजन करने के चलते बढ़ते मोटापे या इस तरह के खानपान से पैदा हुई दूसरी तरह की कई बीमारियों के चलते कंपनियों को प्रत्येक कर्मचारी पर अतिरिक्त खर्चना पड़ रहा है।

बाहर का खाना खाने का चलन
देशभर के बड़े शहरों में विशेषकर युवाओं के बीच पकाओ कम, खाओ ज्यादा की जीवनशैली तेजी से अपने पांव पसार रही है। हॉस्टल, पेइंग गेस्ट्स और अकेले रहने वाले छात्र ही नहीं, बड़े शहरों की कामकाजी आबादी भी इसी ढर्रे पर चल पड़ी है। इनकी भी यही कोशिश रहती है कि वीकेंड और छुट्टियों को छोड़कर सुबह का नाश्ता और रात का खाना भी घर पर न पकाना पड़े तो बेहतर है। इसीलिए 21वीं सदी के दूसरे दशक में भारतीयों द्वारा हर साल घर के बाहर इतना खाया जा रहा है,
जितना पिछली सदी में पूरे एक दशक में भी नहीं खाया जाता था। मतलब यह कि पिछली सदी के अंतिम दशक के मुकाबले भारतीयों की घर के बाहर खाने की आदत में 10 गुना की बढ़ोत्तरी हुई है। यह बहुत बड़ी बढ़ोतरी है। इसके पीछे कोई तर्क न हो, ऐसा नहीं है। दरअसल आज की तारीख में लोग सोचते हैं बाहर खाने से एक तो घर में खाना बनाने का झंझट खत्म होगा, साथ ही उनकी काम की गुणवत्ता और उत्पादकता बढ़ेगी। क्योंकि इन दोनों के लिए उन्हें पर्याप्त समय मिलेगा, जो टाइम खाना बनाने में खर्च हो जाता है।
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मुंबई में डब्बे वालों का कारोबार ही चौपट
यही वजह है कि महानगरों में नियमित कामगारों के बीच भी अब घर से खाना न ले जाने की प्रवृत्ति तेजी बढ़ रही है। देश की वित्तीय राजधानी मुंबई में तो लोगों की इस आदत के चलते डब्बे वालों का कारोबार ही चौपट हो गया है। इस सदी के शुरुआत में मुंबई में 7 लाख से ज्यादा डब्बे वाले थे, जो हर दिन 50 लाख से ज्यादा लोगों को उनके दफ्तरों में, उनके घरों से लाकर गर्मागर्म खाना पहुंचाया करते थे। अब पूरे मुंबई में कुल 25 से 30 हजार के बीच ही डब्बे वाले बचे हैं
जो करीब 2 से 2.5 लाख लोगों के घरों से खाना लेकर लंच में उन तक पहुंचाते हैं। मुंबई में ही नहीं, दिल्ली, नोयडा, गुड़गांव या गाजियाबाद में भी अब दोपहर में कामगार जरूरी नहीं है कि घर से लाया टिफिन ही खाएं। तेजी से घर के बाहर खाने की आदत बढ़ रही है। क्योंकि लोगों ने अब घर में खाना बनाना काफी कम कर दिया है।

खानपान के आउटलेट्स में भारी भीड़
दूसरी वजह यह भी है कि इन दिनों कामकाज के जो नये केंद्र विकसित हो रहे हैं उनके इर्दगिर्द बड़े पैमाने पर फूड कोर्ट और फूड स्ट्रीट भी बन रहे हैं। यही वजह है कि लंच हो या डिनर, लोग घर की बजाय बाहर ही खाना ज्यादा पसंद करते हैं। बर्गर, फ्रेंचफ्राई, मैगी-नूडल्स, छोले भटूरे, डोसे, परांठे, नान-कोरमा, बिरयानी, राजमा, राइस, फ्राइड चिकन, रोल, मोमो जैसे बीसियों किस्म के खाने तेजी से भारतीयों के बीच में लोकप्रियता की नई ऊंचाईयां छू रहे हैं। कामकाजी क्षेत्रों में दोपहर होते ही, खानपान के आउटलेट्स में लोगों की भारी भीड़ जमा हो जाती है। खाने वालों में युवा तो होते ही हैं,
अधेड़ और बुजुर्ग भी अच्छी खासी संख्या में दिख जाते हैं। दोपहर में 1 से 2 के बीच पूरे देश में लंच का चलन है। इसलिए यह किसी एक शहर का भी नजारा नहीं है, देश के किसी भी बड़े, मझौले या छोटे शहर में भी इस तरह का नजारा देखा जा सकता है। हां, छोटे और मझौले शहरों में वैसी भीड़ नहीं होती, जैसे बड़े कामकाजी शहरों में होती है। हालांकि इसके नुकसान भी कुछ कम नहीं हैं। आधे पौन घंटे के लंच टाइम में ऑर्डर देने, फिर जल्दी जल्दी खाने और सिगरेट, कोल्ड ड्रिंक या चाय निपटाने के बाद इनमें ऑफिस पहुंचने और कम से कम 3 से 5 घंटे ऑफिस में काम करने का तनाव भी रहता है।
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झपकी, सुस्ती, उबासी आने की शिकायत
लंच के बाद अधिकतर को झपकी, सुस्ती, उबासी आने की शिकायत भी रहती है। बहुतों को लगता है कि इससे उनकी उत्पादकता तो कम होती ही है, फैसले लेने की क्षमता भी प्रभावित होती है। कइयों को तो लगता है कि वे लंच बाद की मीटिंग में पर्याप्त ऊर्जावान और चुस्त नहीं दिखते। कर्मचारियों में मोटापा, कब्ज, अपच और गैस की शिकायत तो आम है। कई तो साल में एकाध बार फूड प्वाइजनिंग का शिकार भी हो चुके हैं।
डॉक्टरों का कहना है कि इस तरह के खानपान से शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता कम हो जाती है और शरीर हल्के फुल्के बदलाव, संक्रमण का आसानी से शिकार हो बार-बार बीमार पड़ता है। अपने देश में सामान्य कार्यावधि 8 घंटे है। बड़े और व्यस्त शहरों में घर से काम के लिये बाहर निकलने से लेकर वापस आने तक की प्रक्रिया में यह कई बार 12 घंटे तक खिंच जाता है।

अमेरिका समेत कई यूरोपीय देशों में अभियान
कामकाजी लोग अपने भोजन का तकरीबन आधा हिस्सा बाहर ही करते हैं। कम से कम 4 बार के भोजन में एक बार का मुख्य भोजन तो उनका बाहर ही होता है। अगर कहीं कोई आईटी प्रोफेशनल, अखबारी या इस तरह के जॉब में है या पति-पत्नी दोनों कामकाजी हैं तो हो सकता है कि 2 बार का भोजन बाहर ही निपटाना पड़े। ऐसे में काम के दौरान लिया गया भोजन सिर्फ सेहत के चलते ही नहीं, कई दूसरी वजहों से भी बहुत महत्वपूर्ण है।
कई शोध बताते हैं कि कामकाज के दौरान आप किसका बनाया, कहां, क्या, कैसे, कब कितना खा रहे हैं इसका असर आपके स्वास्थ्य, कार्यदक्षता पर ही नहीं, बल्कि आपकी कंपनी की कार्यकुशलता, मुनाफे, देश की अर्थव्यवस्था जैसे तमाम क्षेत्रों पर पड़ता है। इसी के मद्देनजर अमेरिका समेत कई यूरोपीय देशों में बहुतेरी कंपनियों ने काम पर भोजन मुहैय्या कराने का सघन अभियान चला रखा है। वहां तो वे नामी शेफ द्वारा तैयार, अलग-अलग कर्मचारियों की सेहत और उनके मोटापे आदि को देखते हुए उसके अनुकूल भोजन परोस रहे हैं। लेकिन हमारे यहां लोग आधुनिक होने या ज्यादा से ज्यादा कमाने के कारण खानपान की संस्कृति में बदलाव लाकर अपनी सेहत से खिलवाड़ कर रहे हैं।
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