Pain Feeling: तेजी से भागती जीवनशैली में रोज होता है सामना
Pain Feeling: दर्द को सहने की क्षमता को लेकर भी विशेषज्ञों के विचार भिन्न-भिन्न हैं। कुछ का कहना है कि दर्द को सहने के लिए व्यक्ति का सामाजिक रूप से उन्नत होना जरूरी है। यह अवस्था शिक्षा, संस्कृति और व्यक्तित्व पर निर्भर करती है। इन तीनों ही रूपों में जो व्यक्ति परिपक्व होता है उसे दर्द को सहन करने में उतनी परेशानी नहीं होती है जितनी एक साधरण व्यक्ति को होती है।
ऐसा इसलिए होता है क्योंकि ये तीनों ही चीजें व्यक्ति को मानसिक रूप से मजबूत बनाती हैं जो दर्द सहन करने का एकमात्र रास्ता है। इसके उलट कुछ का मानना है कि मानसिक रूप से मजबूत होने के लिए शिक्षा, संस्कृति और व्यक्तित्व की जरूरत नहीं, यह तो परिस्थितियों और अनुभवों के आधार पर ही विकसित किया जा सकता है। अच्छे-खासे पढ़े-लिखे और सुसंस्कृत संपन्न लोग भी आपको ऐसे मिल जाएंगे जो छोटी सी भी मानसिकता या शारीरिक चोट के कारण बच्चों की तरह व्याकुल हो जाएंगे। दर्द, यह शब्द हम में से किसी के लिए भी अनजाना नहीं है। आज की तेजी से भागती जीवनशैली में तो हमारा रोज ही इससे सामना होता रहता है।

व्यक्त करने की प्रक्रिया का हिस्सा
जानवरों की अपेक्षा इन्सानों को ईश्वर ने खुद को व्यक्त करने की क्षमता दी है। दर्द भी इसी व्यक्त करने की प्रक्रिया का एक हिस्सा है। इसे मुख्यतः दो प्रकारों में विभाजित किया जाता है, एक तो शरीर को किसी प्रकार की तकलीफ होने पर वह दर्द के रूप में प्रकट होती है, दूसरा मानसिक पीड़ा जिसमें व्यक्ति भावनाओं के कारण आहत होता है। दूसरे प्रकार का का दर्द व्यक्ति के लिए ज्यादा घातक होता है। शरीरिक दर्द के निवारण के तो तमाम उपाय हैं लेकिन परिस्थितियों चलते अगर कोई व्यक्ति दुख से घिर जाए और उसे अपने जीवन में चारो ओर अँधेरा ही अँधेरा नजर आने लगे तो यह इमोशनल पेन की कैटेगिरी में आ जाता है।

सांकेतिक भाषा का उपयोग
शारीरिक दर्द में व्यक्त करने के लिए ज्यादातर लोग सांकेतिक भाषा का उपयोग करते हैं, इस भाषा में शरीर के किसी भी हिस्से में उठे दर्द के एहसास की तुलना किसी भारी-भरकम कार्य से की जाती है। जैसे सिर में अगर तेज दर्द है तो ज्यादातर लोग इसे इस तरह व्यक्त करेंगे, ‘मेरे सिर में इतना तेज दर्द हो रहा है मानो सिर पर हथौड़े चल रहे हों।’ वैज्ञानिक भाषा में शारीरिक दर्द को परिभाषित करें तो यह एक ऐसी व्यवस्था है जो हमारे शरीर को किसी भी बड़े नुकसान से रोकने का संकेत देता है।
शरीर के किसी हिस्से में दर्द होने का अर्थ है उस भाग की क्रिया प्रणाली अव्यस्थित है और उस पर सामान्य से ज्यादा दबाव डाला जा रहा है। उई मां, आह, आउच जैसे शब्दों से अपने आगमन का एहसास कराने वाला दर्द, इन शब्दों के जरिये पीड़ित व्यक्ति की मनोदशा का वर्णन करता है। क्या वाकई दर्द सिर्फ मनोदशा के कारण उपजा एक विकार है, इसका वास्तविकता से कोई लेना-देना नहीं या यह शरीर को होने वाली तकलीफ और मस्तिष्क तक पहुंचे इसके संकेत को पीड़ित व्यक्ति को अवगत कराने का माध्यम है? इस बारे में विशेषज्ञों की राय भी अलग-अलग है।
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भावनाओं का भी योगदान
विज्ञान की मानें तो दर्द सिर्फ संवेदनाओं से जुड़ा गुण नहीं है बल्कि इसमें भावनाओं का भी योगदान होता है। ग्रीक के प्राचीन दार्शनिक दर्द की व्याख्या भावना के रूप में ही करते हैं। उदाहरण के रूप में अरस्तू दर्द को आत्मा का उन्मुक्त जज्बा मानते हैं। जबकि वैज्ञानिक तर्कों में दर्द को प्राथमिक रूप से संवेदना को भिन्न स्वरूप माना जाता है, इसके अलावा यह एक ऐसी शक्तिशाली अवस्था है जिसमें एहसास का बोलबाला होता है।
दर्द पर अध्ययन करने वाली वैज्ञानिक संस्थाओं का मानना है कि इसे कष्टदायक संवेदना और भावुकता से भरे अनुभव का मिश्रण कहा जा सकता है जिसमें उतकों की क्षति के साथ अन्य तमाम शरीरिक क्षतियों को शाल किया सकता है। मेडिकल क्षेत्र के लिए आज भी चुनौती बना हुआ दर्द सदियों से या कहें कि मानव के जन्म से ही हमारे जीवन का हिस्सा है। मेडिकल का मानना है कि दर्द मस्तिष्क के चेतना में होने का संकेत है यानी कहीं न कहीं यह मनोदशा के कारण ही उपजता है।

अवचेतन मस्तिष्क को नहीं होता दर्द का एहसास
अगर मानव मस्तिष्क को अवचेतन कर दिया जाए तो उसके शरीर के साथ कितनी भी ज्यादती की जाए उसे किसी प्रकार के दर्द का एहसास नहीं होगा। यह तर्क पूरी तरह सच है, बेहोश करके अगर व्यक्ति के अंग-भंग भी कर दिए जाएं तो भी उसे जरा सी भी तकलीफ नहीं होगी, इसके विपरीत अगर होश में व्यक्ति को गहरी चोटें भी आ जाएं तो वह दर्द के कारण कराह उठता है। यही कारण है कि दर्द से बुरी तरह चीख रहे व्यक्ति को दर्द कम करने के नाम पर जो दवाईयां दी जाती हैं वह सीधे उसके मस्तिष्क पर असर डालती हैं। इन दवाइयों के जरिये उन संकेतों को क्षीण कर दिया जाता है जो मस्तिष्क तक दर्द के एहसास को पहुंचाते हैं।
कुछ स्थितियों में लोग दर्द और कष्ट की स्थिति को एक ही मापदंड में तोलते हैं। जबकि कष्ट मस्तिष्क की बहुत दुखद अवस्था के कारण जन्म लेता हैजो दर्द या क्षोभ से नीचे की अवस्था कही जाती है। क्षोभ के उत्पन्न होने की वजह होती है डर, गुस्सा, असुविधा और तनाव। दर्द और कष्ट दोनों का मिश्रण कहलाता है।
दर्द पर सदियों से विचार होता रहा है, लेकिन अंततः वैज्ञानिक दर्द के ज्ञान, मनोविज्ञान और विज्ञान का खूब मंथन करके इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि जीवन की सबसे अनमोल चीज है दर्द।

जीव की चेतना है दर्द
दर्द दरअसल इन्सान के होने न होने की विभाजक रेखा है। एक बार इन्सान में दर्द होना बंद हो जाए फिर उसका कैसे भी अंग भंग कर दीजिए चूं तक नहीं करेगा। दर्द वास्तव में जीव की चेतना है। दर्द एक ऐसा बिंदु है जहाँ इन्सान जानवर एक ही प्लेटफॉर्म में खड़े हैं। दोनों को ही समान रूप से दर्द का एहसास होता है। जब से इन्सान ने दर्द का एहसास करना शुरू किया तभी से इसे लेकर तमाम तरह की धारणाएं विकसित कीजाती रही हैं।
कुछ इसे शरीर को पहुंचे नुकसान का संकेत मात्र मानते हैं तो कुछ का कहना है कि दर्द कुछ नहीं बल्कि मनोविज्ञान के चलते उपजा एकऐसा विकार है जो इन्सान को कमजोर बनाता है। दोनों ही तर्कों की सत्यता अपनी-अपनी जगह सही है, किसी को भी गलत नहीं ठहराया जा सकता। बशर्ते दोनों ही तर्कों को बारीकी से समझा जाए।
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