Sub-Classification Within SC-ST: आरक्षण पर सुको के फैसले के बाद नेताओं की बढ़ी बैचेनी
Sub-Classification Within SC-ST: एससी-एसटी के आरक्षण में सब-कैटेगरी बनाने पर आए सुप्रीम कोर्ट के फैसले से सियासत तेज हो गई है। सुप्रीम कोर्ट की 7 जजों की बेंच में शामिल जस्टिस बीआर गवई ने एससी-एसटी आरक्षण में क्रीम लेयर लागू करने पर भी जोर दिया। सर्वोच्च अदालत के इस फैसले ने देश में एक नए सियासी बहस को जन्म दे दिया है। भाजपा और कांग्रेस ने भले ही चुप्पी को अख्तियार कर रखा हो, लेकिन दलित राजनीतिक चेहरे खुलकर विरोध में उतर गए हैं। बसपा की प्रमुख मायावती ही बेचैन नहीं है बल्कि भाजपा के सहयोगी एलएजपी के अध्यक्ष केंद्रीय मंत्री चिराग पासवान और आरपीआई के प्रमुख रामदास अठावले भी परेशान नजर आ रहे हैं।
एससी-एसटी आरक्षण के कोटा में कोटा बनाने का फैसला आने के बाद से बसपा प्रमुख मायावती एक्टिव हैं और उन्होंने मोर्चा खोल दिया है। मायावती ने कहा कि आरक्षण का बंटवारा अनुचित और असंवैधानिक है। केंद्रीय मंत्री रामदास अठावले ने कहा कि रिपब्लिकन पार्टी एससी-एसटी में आरक्षण के लिए क्रीमीलेयर का कड़ा विरोध करती है, तो चिराग पासवान ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले को एससी समुदाय में बंटवारा डालने वाला बताया। ऐसे में सवाल उठता है कि मायावती से लेकर चिराग पासवान और रामदास अठावले की सियासी बेचैनी क्या है?

महाराष्ट्र में दलित राजनीति करने वाले भी नाखुश
सुप्रीम कोर्ट के फैसले दलित राजनीति करने वाले आरपीआई के प्रमुख केंद्रीय मंत्री रामदास अठावले खुश नहीं है। इतना ही नहीं वह दलितों को बांटने वाला और आरक्षण को खत्म करने की साजिश बता रहे हैं। इसके अलावा वंचित बहुजन आघाड़ी के अध्यक्ष प्रकाश आंबेडकर भी इसके खिलाफ हैं। अठावले से लेकर आंबेडकर की सियासी बेचैनी की वजह यह है कि महाराष्ट्र में दलित आरक्षण के बंटवारे का रास्ता साफ हो गया है। महाराष्ट्र में दलित समुदाय के आरक्षण को लंबे समय से वर्गी करने करने की मांग उठती रही है। राज्य में दलित आबादी 12 प्रतिशत के बीच है, जो दो हिस्सों में महार और गैर-महार में बंटी हुई है। महार जाति महाराष्ट्र के दलितों में पचास फीसदी से थोड़ी ज्यादा है।
इसके अलावा बाकी दलित जातियों में मांग, कोरी, खटीक, मातंग, भेड़, चमार, ढोर, डोम औलख, गोतराज हैं। राज्य में दलित आरक्षण का ज्यादातर लाभ महार जाति के लोगों के उठाने का आरोप लगता रहा है, जिसके चलते गैर-महार जाति के लिए अलग से कोटा बनाकर आरक्षण की मांग होती रही है। आंबेडकर और अठावले महार जाति से आते हैं और आरक्षण के बंटवारे से सबसे बड़ा झटका उनको लग सकता है। इसलिए खुलकर सुप्रीम कोर्ट के फैसले का विरोध कर रहे हैं।

राजनीतिक उथल-पुथल होने की संभावना
देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में चार बार सरकार बना चुकी बसपा का गठन भी इसी आधार पर हुआ था। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के आलोक में कोई कदम उठाती है तो राजनीतिक उथल-पुथल होने की संभावना है। इसी वजह से राजनीति दल अभी चुप्पी साधे हुए हैं, तो मायावती से लेकर चिराग पासवान और रामदास अठावले जैसे दलित नेताओं को अपने सियासी वोट बैंक में सेंधमारी का खतरा मंडराने लगा है।

UP में जाटव समुदाय को सबसे ज्यादा फायदा
उप्र में लंबे समय अनुसूचित जाति को मिलने वाले आरक्षण को दो वर्गों में बांटने की बात की जा रही थी। यूपी में अनुसूचित जाति के लिए 21 फीसदी आरक्षण मिलता है। यूपी में सियासी तौर पर जाटव और गैर-जाटव के बीच दलित बंटा हुआ है। साल 2021 में भाजपा की सरकार हुकुम सिंह की अध्यक्षता में सामाजिक न्याय समिति का गठन किया था। इस समिति ने एससी-एसटी के 21 फीसदी और पिछड़ों के 27 फीसदी आरक्षण को विभाजित करने की सिफारिश की गई थी। यूपी में 21 फीसदी दलित आरक्षण को 10 फीसदी और 11 फीसदी में बांटने की बात कही थी।
यूपी में अनुसूचित जाति को मिलने वाले आरक्षण का लाभ जाटव समुदाय को सबसे ज्यादा हुआ है और उसके बाद धोबी, पासी और अन्य जातियों को मिली है, लेकिन कोरी, कोल, बाल्मिकी जैसी अनुसूचित जातियां को आरक्षण वैसा नहीं मिला जैसे जाटवों को मिला है। इस बात का जिक्र हुकुम सिंह आयोग की रिपोर्ट में कहा गया है। जाटव वोटर बसपा का कोर वोटबैंक माना जाता है। ऐसे में भाजपा और सपा गैर-जाटव वोटों को साधने के लिए दलित आरक्षण के वर्गीकरण करती रही हैं और अब सुप्रीम कोर्ट के फैसले के चलते सियासत तेज हो गई है। मायावती की चिंता अपने दलित वोट बैंक में सेंधमारी की सताने लगी है। यूपी में बसपा का पहले आधार सभी दलित जातियों के बीच रहा है, लेकिन अब जाटवों की पार्टी बनकर रह रहे हैं।

बिहार में 17 फीसद दलित वोटर
बसपा ही नहीं एलजेपी (आर) के प्रमुख केंद्रीय मंत्री चिराग पासवान भी सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ उतर गए हैं। चिराग की सियासी बेचैनी की वजह उनके राजनीतिक आधार वाले वोटबैंक पर कोर्ट का फैसला सियासी असर डाल सकता है। बिहार में नीतीश कुमार ने सीएम बनने के दो साल बाद ही 2007 में दलित समुदाय को दलित और महादलित में बांटा था। नीतीश ने महादलित आयोग का भी गठन किया था। चिराग अब अपना सियासी नफा-नुकसान देख रहे हैं। बिहार में करीब 17 फीसदी दलित मतदाता हैं और 22 के करीब दलित जातियां हैं।
नीतीश ने दलित बनाम महादलित का दांव चला है, इसमें 22 में से 21 दलित जातियों को महादलित घोषित कर दिया था और 2018 में पासवान को भी महादलित वर्ग में शामिल कर दिया है। बिहार में दलित समुदाय में अधिक मुसहर, रविदास और पासवान समाज की जनसंख्या है। वर्तमान में साढ़े पांच फीसदी से अधिक मुसहर, चार फीसदी रविदास और साढ़े तीन फीसदी से अधिक पासवान जाति के लोग हैं। इनके अलावा धोबी, पासी, गोड़ आदि जातियों की भागीदारी अच्छी खासी है।
Read more: Kanchanjunga Express Accident: 10 वर्षों में भारतीय रेलवे का सुरक्षा में महत्वपूर्ण निवेश

दलित राजनीति में इतने महत्वपूर्ण क्यों?
सवाल यह उठता है कि दलित भारतीय राजनीति में इतने महत्वपूर्ण क्यों हैं। समाज में सबसे कमजोर माने जाने वाले दलित वर्ग की बड़ी सियासी ताकत है। यह ताकत है इनकी संख्या की वजह से। 2011 की जनगणना के मुताबिक देश में 16।63 फीसदी अनुसूचित जाति और 8।6 फीसदी अनुसूचित जनजाति हैं। 150 से ज्यादा संसदीय सीटों पर एससी/एसटी का प्रभाव माना जाता है। सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय की एक रिपोर्ट के मुताबिक देश में 46,859 गांव ऐसे हैं जहां दलितों की आबादी 50 फीसदी से ज्यादा है।
75,624 गांवों में उनकी आबादी 40 फीसदी से अधिक है। लोकसभा की 84 सीटें एससी के लिए, जबकि 47 सीटें एसटी के लिए आरक्षित हैं। विधानसभाओं में 607 सीटें एससी और 554 सीटें एसटी के लिए आरक्षित हैं। इसलिए दलितों का हितैषी बनने के लिए सभी दलों में होड़ लगी हुई है। ऐसी होड़ कि कहीं ये वोट बैंक हाथ से छूट न जाए। दलित वोट बैंक को लेकर इस बार के लोकसभा चुनाव में जिस तरह शह-मात का खेल हुआ है।
- Content Marketing : भारत में तेजी से बढ़ रहा है कंटेंट मार्केटिंग का क्रेज - January 22, 2025
- Black Magic Hathras: ‘काले जादू’ के नाम पर 9 वर्ष के बच्चे की बलि - January 18, 2025
- Digital Marketing: आपके व्यवसाय की सफलता की कुंजी ‘डिजिटल मार्केटिंग’ - January 18, 2025