Head or Heart? – जिंदगी के मामले में दिल से ज्यादा दिमाग से सोचना दुरुस्त
Head or Heart?: जिन निर्णयों से हमें लंबे समय तक प्रभावित होना होता है, उन्हें बहुत सोच समझकर और मन की बजाय मस्तिष्क या दिल की बजाय दिमाग से सोचने के बाद लेना चाहिए। दिमाग ऐसे दांव पर सवाल खड़ा करता है, जैसे दावों के अतीत में पूरा उतारने पर संदेह रहा हो। दिल का यह संदेह वाजिब होता है और 100 में 99 बार सही भी होता है। लेकिन यह भी सही है कि जो पहले कभी न हुआ हो, जरूरी नहीं है कि वो बाद में भी कभी न हो।
20वीं शताब्दी के आखिरी दशक तक 100 मीटर की फर्राटा दौड़, 10 सेकंड से कम में पूरा नहीं हो रही थी। इसलिए 1950 या इसके पहले कोई एथलीट दिमाग की न सुनकर 100 मीटर की फर्राटा दौड़ के लिए 10 सेकंड से कम समय में पूरा करने के लिए बाजी लगाता, तब तो यह उसकी हार होती। लेकिन अंततः जब धावकों ने 10 सेकंड से कम के समय में 100 मीटर दौड़ने का रिकॉर्ड तोड़ दिया तो यह सही हो गया कि जो पहले कभी न हुआ हो, वह भी हो सकता है।

दिल में उठने वाली बातें बेवजह नहीं
हां, मस्तिष्क ज्यादातर बार इसलिए सही होता है, क्योंकि उसके फैसलों में हजारों कामयाब फैसलों का निष्कर्ष छिपा होता है, इसलिए जिंदगी के मामले में दिल से ज्यादा दिमाग का सोचना दुरुस्त होता है। फिर भी दिल से सोचना गैरजरूरी नहीं होता। कहने का मतलब सिर्फ यह है कि चरम पर दोनों स्थितियों का अपनी तरह से फायदा और अपनी तरह से नुकसान है। लेकिन दोनों में कोई भी एक स्थिति ऐसी नहीं है, जिसके साथ हुआ जाए और जिसके लिए दूसरी स्थिति को छोड़ा जाए। विज्ञान कहता है कि भले दिल की बातों का ठोस तर्क और रूप न होता हो, लेकिन दिल में उठने वाली बातें बेवजह या अवैज्ञानिक कतई नहीं होतीं। दरअसल हमारी सोच, हमारे व्यापक अनुभवों का नतीजा होती है।
हमारा मस्तिष्क कंप्यूटर के सॉफ्टवेयर की तरह काम करता है या दूसरे शब्दों में उसके लिए डिजिटल बायनरी जरूरी होती है, जैसे अदालत के लिए सबूत जरूरी होते हैं। लेकिन जीवन की जटिलताएं बताती हैं कि हर चीज का सबूत हो, यह जरूरी नहीं है। दिल हो या दिमाग, दोनों ही अपने स्तर पर हमें अपने-अपने तरीके से करेक्ट करने की कोशिश करते हैं। जैसे, हम अंधेरे में बीच सड़क से चल रहे हों तो मन से आवाज आती है, यह सही नहीं है। दुर्घटना हो सकती है और हम अचानक किनारे से चलने लगते हैं, तभी देखते हैं कि यकायक बड़ी तेजी से कोई वाहन गुजर जाता है और हमारे मन में झुरझुरी सी फैल जाती है। हम सोचते हैं, अगर हम किनारे न चल रहे तो पता नहीं क्या होता?
Read more: Global Friendship: दुनिया में बढ़ता जा रहा है ग्लोबल फ्रेंडशिप का चलन

परिस्थितियों के हिसाब से दिल की सुनें
कई बार दिल की सुनना तब और राहत देता है, जब हम पानी भरी सड़क में कार से चल रहे हों और सड़क में बीच में चलने से अचानक कार का पहिया गड्ढे में चला जाए। ऐसे में हम अपने को बार-बार यही कोसेंगे कि दिल कहता था किनारे चलो, हमने दिल की नहीं सुनी, अब भुगतो। दरअसल दिल और दिमाग दोनों ही साइंटिफिक होते हैं और हमारी जिंदगी की सफलताओं या असफलताओं दोनों की ही भूमिका होती है। सच तो यह है कि अलग-अलग मौकों पर परिस्थितियों के हिसाब से कभी दिल की सुननी जरूरी होती है, कभी दिमाग की।
मान लीजिए, आपके पास कोई इंवेस्टमेंट एजेंट आता है और आपको ऐसी जगहों पर निवेश के बेहिसाब फायदे गिनाता है, जो आपको अच्छे तो लगते हैं, कुछ पलों के लिए रोमांचित भी करते हैं, लेकिन जरा से सोचने पर लगता है, यह कैसे संभव है? आखिरकार कोई भी निवेश हमें फायदा तो तभी दे सकता है, जब हमारे निवेश का उन लोगों के लिए फायदा हो, जो हमें उसके बदले में ज्यादा से ज्यादा प्रतिफल दे रहे हों। कोई कंपनी आपको 100 रुपये लगाने के 10,000 रुपये एक झटके में नहीं दे सकती। अगर देगी, तो जाहिर है उसका कोई बड़ा खेल होगा।
ऐसे मौकों पर हमेशा मन भले लालच में आ जाए, लेकिन दिमाग कहता है, इस लालच के सच होने का कोई तर्क नहीं है। इसलिए यह योजना आपको खुशियां नहीं, परेशानियां देगी। विज्ञान कहता है, सच्चाई का आधार तर्क है। बिना तर्क किसी बात का कोई अर्थ नहीं है। लेकिन जीवन के अनुभव कहते हैं, सिर्फ तर्क से जीवन नहीं चलता। भले आज की पीढ़ी ज्यादा तार्किक और लॉजिकल हो, इसलिए वह दिल की सुनने की बजाय दिमाग से ज्यादा सुनती हो, लेकिन क्या वाकई दिमाग की सुनना ही साइंटिफिक है? साइंस ऐसा भी नहीं मानती।

संवेदना के विज्ञान को समझें तो जज्बात साइंटिफिक
साइंस नहीं मानती कि हमारे मन में उभरने वाले आभास साइंटिफिक नहीं होते या दिल की आवाज का अपना कोई आधार नहीं होता। मन में उभरने वाले आभासों पर भी विज्ञान मुहर लगाता है। संवेदना के विज्ञान को समझें तो जज्बात साइंटिफिक होते हैं। इन्हें आसानी से नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। भले वो तर्क की कसौटी पर थोड़े धुंधले नजर आते हों, मगर उनकी अपनी वैज्ञानिकता होती है। जरा इन दो स्थितियों पर गौर करिए। 1. दिमाग सोचता है मां से झूठ बोल देता हूं, उसे क्या पता चलेगा? 2. लेकिन दिल कहता है, मां सब कुछ जानती है।
वह बिना कहे ही हमारा मन पढ़ लेती है। इसलिए बेहतर है मां को सबकुछ साफ-साफ बता दिया जाए। अब इन दोनों बातों को अपने-अपने हिसाब से कोई भी सही साबित कर सकता है। दिमाग का कोई पक्षधर यह साबित कर सकता है कि मां से अपनी कोई गलती बताने से बेहतर है, उसे छुपा लिया जाए ताकि उसका मन न दुखे और सबक लिया जाए कि अगली बार से उसकी जरूरत न पड़े। इस तरह से देखें तो दिमाग की सुनना वाकई यहां सही लग रहा है।
क्योंकि मां को हमारी गलती का पता भी नहीं चला, हमें लेकर उसका मन भी नहीं खराब हुआ और हमें सबक भी मिल गया कि गलती करने के बाद उसे छुपाना कितना बड़ा बोझ होता है। लेकिन अगर भोलेपन और निश्छलता की कसौटी पर देखें तो जब कोई बच्चा अपनी कोई छोटी सी गलती मां से छिपाता है तो वह अपने झूठ बोलने की नींव रख रहा होता है। यह झूठ जब मां को या किसी को भी पता चलता है, तब न सिर्फ दिल में धक से होता है, बल्कि मन बहुत खराब होता है और हमेशा-हमेशा के लिए विश्वास टूट जाता है। इस नजरिये से देखें तो छोटी से छोटी बात छिपाना भी सही नहीं है।
- Content Marketing : भारत में तेजी से बढ़ रहा है कंटेंट मार्केटिंग का क्रेज - January 22, 2025
- Black Magic Hathras: ‘काले जादू’ के नाम पर 9 वर्ष के बच्चे की बलि - January 18, 2025
- Digital Marketing: आपके व्यवसाय की सफलता की कुंजी ‘डिजिटल मार्केटिंग’ - January 18, 2025