Indian Womens: महंगाई, भ्रष्टाचार, लचर कानून व्यवस्था से परेशान
Indian Womens: 2029 से महिलाओं को संसद व विधानसभाओं में 33 प्रतिशत आरक्षण दिया जायेगा। यद्यपि पुरुष व महिला एक ही घर में रहते हैं लेकिन चुनावी समीक्षक व खद्दरधारी हमें यह यकीन दिलाना चाहते हैं कि वे अलग-अलग दुनिया में रहते हैं और आपस में उनका कोई तालमेल नहीं है। इसलिए ‘महिला वोट बैंक’ पर तो ख़ूब चर्चाएं होती हैं, उन्हें लालच देकर रिझाने का प्रयास भी होता है लेकिन ‘पुरुष वोट बैंक’ के बारे में कभी कुछ सुनाई नहीं देता।
यह सही है कि आज की नारी अपनी स्वतंत्र सोच रखती है और पहले की तरह अब वह मतदान के दौरान पितृसत्तात्मक आदेश का पालन करने के लिए बाध्य नहीं है लेकिन उसकी सियासी महत्वकांक्षाएं भी पुरुषों से कम नहीं हैं और उसकी वोट इतनी सस्ती नहीं है कि साड़ी, कुकर, साइकिल जैसे टुकड़ों के एवज में खरीदी जा सके। इस प्रकार तथाकथित महिला वोट बैंक को साधना महिलाओं का अपमान है और फूहड़ राजनीति है। महिलाओं को भी शिक्षा, रोजगार व स्वास्थ्य सेवाएं चाहिए। वे भी महंगाई, भ्रष्टाचार, लचर कानून व्यवस्था आदि से परेशान हैं। उन्हें भी सुरक्षा व सुशासन चाहिए।प्रतीत होता है कि तथाकथित महिला वोट बैंक की कल्पना जानबूझकर की गई है।

36 प्रतिशत महिलाओं ने बीजेपी को मतदान किया बिहार में
बिहार में पिछले विधानसभा चुनाव में जब नीतीश कुमार की पार्टी जद (यू) ने जीत दर्ज की थी तो कहा गया कि शराबबंदी के कारण महिलाओं ने उन्हें कामयाब कर दिया लेकिन सवाल यह कि क्या नीतीश केवल महिलाओं के वोट से ही जीत सकते थे? नहीं। निश्चित रूप से पुरुषों ने भी शराबबंदी नीति का समर्थन किया होगा। ऐसा तो नहीं था कि बिहार में सभी पुरुष शराबी थे।
अगर सभी या अधिकांश पुरुष शराबी होते तो वह निगेटिव वोट बैंक के जरिये नीतीश को सत्ता से बाहर का रास्ता दिखा देते। इसी तरह 2019 लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी की जीत का श्रेय महिला मतदाताओं में उनकी लोकप्रियता को दिया गया लेकिन डाटा तो कुछ और ही बात कहता है। लोकनीति-सीएसडीएस सर्वे के अनुसार 36 प्रतिशत महिलाओं ने बीजेपी के पक्ष में मतदान किया जबकि पुरुषों के संदर्भ में यह प्रतिशत 39 रहा यानी 3 प्रतिशत पुरुषों ने बीजेपी के लिए अधिक मतदान किया। ध्यान रहे, कुल मतदाताओं में महिला वोटर्स की संख्या पुरुषों की तुलना में लगभग एक करोड़ ज्यादा है।
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महिलाओं को चिड़िया समझना बंद करें राजनीतिक दल
2023 के मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव में महिलाओं के लिए शिवराज सिंह चौहान की लाडली बहना योजना के बावजूद महिलाओं ने बीजेपी की तुलना में कांग्रेस के पक्ष में अधिक मतदान किया। इससे यही ज़ाहिर होता है राजनीतिक दल महिलाओं को ऐसी चिड़िया समझना बंद करें जो साड़ी रूपी दाना डालने पर उनके जाल में फंस जायेंगी। महिलाएं अपने विवेक से स्वतंत्र निर्णय लेती हैं और वह भी बिना किसी प्रलोभन में आये हुए।
सियासी पार्टियां इस तथ्य को जितना जल्दी समझ लेंगी उतना ही उनके लिए बेहतर होगा। महिलाओं को लालच देकर अपने जाल में फंसाना कितना कठिन है, यह एक बड़े सर्वे से भी स्पष्ट है। हालांकि श्रम-बल में महिलाओं का प्रतिनिधित्व कम व चिंताजनक है लेकिन सर्वे के अनुसार बेरोजगारी को लेकर अधिक महिलाएं चिंतित हैं। यह इस लिहाज़ से अनुमान के विपरीत है क्योंकि राजनीतिक दलों ने यह भ्रम फैलाया हुआ है कि बेरोज़गारी केवल पुरुषों की समस्या है।

33 प्रतिशत आरक्षण से संतुष्ट नहीं
सर्वे में यह भी बताया गया है कि महिला आरक्षण विधेयक का स्वागत पुरुषों ने अधिक किया। यह संभवतः इसलिए क्योंकि महिलाएं संसद व विधानसभाओं में 33 प्रतिशत आरक्षण से संतुष्ट नहीं हैं। उन्हें स्थानीय निकायों की तरह 50 प्रतिशत आरक्षण चाहिए, बराबरी चाहिए। स्थानीय निकायों में महिलाओं का 50 प्रतिशत प्रतिनिधित्व सामाजिक न्याय है। इसे वोट बैंक समझना बेवकूफी होगा। इसके बावजूद भी अगर राजनीतिक दल ‘महिला वोटर’ की धारणा बनाये हुए हैं तो उसकी वजह उनका यह समझना है कि महिलाएं कमजोर व वंचित हैं।
एक साड़ी पाकर एहसानमंद हो जाती हैं। सियासी दलों का यह संदेश अपमानजनक है। टॉप निर्माण कम्पनियों में अधिकारी स्तर पर वह मात्र 7 प्रतिशत हैं। आईटीआई में उनकी प्रवेश संख्या लगभग 17 प्रतिशत है और 76 प्रतिशत महिला स्नातकों को जॉब नहीं मिलता। मात्र 8 प्रतिशत महिलाएं ब्लू कालर कर्मचारी हैं और 15 से 29 वर्ष आयु वर्ग में 52 प्रतिशत महिलाएं ‘शिक्षा, रोजगार, ट्रेनिंग’ में नहीं हैं। वोट बैंक ‘ग्राहकों’ के सीने पर सम्मान का तमगा नहीं होता है क्योंकि उनके बारे में यह सोच है कि उन्हें सस्ते में खरीदा जा सकता है। आत्मसम्मान वाले नागरिक बनाने की तुलना में वोट बैंक की राजनीति करना आसान होता है क्योंकि व्यवस्थित परिवर्तन लाना कठिन होता है। इसलिए कोई पार्टी इस मार्ग पर चलना नहीं चाहती। इसके विपरीत वोट बैंक की राजनीति तो पार्क में चहलकदमी जैसी होती है।
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लोकसभा चुनाव में 10 प्रतिशत ही महिला प्रत्याशी थीं
2024 लोकसभा चुनाव में सिर्फ़ 10 प्रतिशत ही महिला प्रत्याशी थीं। शहरी महिलाओं की तुलना में ग्रामीण महिलाएं मुफ्त की रेवड़ियों के लालच में अधिक आ जाती हैं। हालात बदलने शुरू हो गए हैं, 1992 और 2022 के बीच में उन घरों की संख्या दोगुनी हुई है जिनमें महिला मुखिया हैं। नवीनतम पीरियोडिक लेबर फ़ोर्स सर्वे में पिछले पांच वर्षों के दौरान महिलाओं की हिस्सेदारी में 15 प्रतिशत की वृद्धि हुई है।
इस किस्म के उत्साहवर्धक डाटा और भी हैं जिन्हें दोहराने की आवश्यकता नहीं। बात सिर्फ़ इतनी है कि भविष्य में महिला मतदाताओं को लेकर राजनीतिक पार्टियों व चुनावी समीक्षकों को अपनी रणनीति में परिवर्तन लाना होगा। महिला मतदाता अपने मूल्य को समझने लगी हैं। कार्यस्थलों पर महिलाएं पुरुषों के बराबर ही मेहनत करती हैं लेकिन अधिकतर मामलों में उन्हें पुरुषों की तुलना में कम वेतन मिलता है।
इस अंतर (बल्कि लिंग भेदभाव) के विरोध में अब आवाजें उठने लगी हैं। फिल्मोद्योग के संदर्भ में सुष्मिता सेन का कहना है, ‘हमें (महिलाओं को) अपनी कीमत समझनी होगी और बिना किसी संकोच या शर्म के अपना हक़ मांगना होगा। जब महिलाएं (पुरुषों से) कम वेतन स्वीकार करना बंद कर देंगी तब ही स्थितियों में परिवर्तन आयेगा।’ सुष्मिता की बातों से यह भी जाहिर होता है कि चूंकि महिलाएं संकोच में कम वेतन लेने के लिए तैयार हो जाती हैं, इसलिए उनसे श्रम पूरा लेने के बावजूद पैसा कम दिया जाता है।
फिलहाल क्या महिलाओं को ‘सस्ता’ केवल श्रम-वेतन के संदर्भ में ही समझा जाता है? नहीं। चुनावी राजनीति में भी तो उन्हें इतना लालची व जरूरतमंद समझ लिया जाता है कि एक साड़ी या एक कुकर देने का वायदा करके उनका वोट लेने का प्रयास किया जाता है जबकि उनके वोट का मूल्य भी पुरुषों की वोट के मूल्य जितना ही है। 2024 के लोकसभा चुनाव के दौरान तो उनके खातों में हर माह चंद हजार रुपये डालने का वायदा किया गया। यह निंदनीय व सतही वोट बैंक की राजनीति है। इस पर आगे आने वाले वर्षों में पुनर्विचार की आवश्यकता है, विशेषकर इसलिए कि आज की जागरूक महिलाएं सम्मान व बराबरी के साथ सियासत में अपनी हिस्सेदारी चाहती हैं। वे केवल वोट ही नहीं बल्कि नेतृत्व करने की इच्छुक हैं।
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