Intelligent Quotient – कठिन समय से बाहर निकालती है बुद्धिमत्ता
Intelligent Quotient: हाल के दशकों में दुनिया में संपत्ति चाहे जितनी बढ़ी हो, विकास चाहे जिस पैमाने पर पहुंचा हो, लेकिन सच्चाई यह है कि अब से ज्यादा निराशा, तनाव, बेचैनी और पराजय बोध किसी भी दूसरे दौर में नहीं देखा और महसूसा गया। इसलिए आज आर्थिक रूप से और परचेजिंग पावर (क्रयशक्ति) के पैमाने पर भले लोग ज्यादा खुशहाल दिखें, लेकिन मानसिक स्तर पर आज कहीं ज्यादा लोग परेशान हैं और यह मानसिक परेशानी ही है, जो पुराने वक्त के मुकाबले आर्थिक रूप से ज्यादा खुशहाल होने के बावजूद हमें निराशा और तनाव से हमेशा दोचार रखती है।
ऐसी स्थितियों में इन परेशानियों से बाहर आना ही वास्तव में बुद्धिमत्ता की निशानी है। इसलिए आज एडवर्सिटी क्वेशेंट या कठिन समय से कुशलतापूर्वक बाहर निकलने को सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण माना जाता है। सफलता के सबसे ऊंचे पायदान पर पहुंचकर अगर आप अचानक परेशानियों से घिर गए हैं, चुनौतियों से उलझ गए हैं, तो ऐसे वक्त पर प्रतिकूलता के दौरान दिखाई गई बुद्धिमत्ता ही एकमात्र वह हथियार होगा, जिसके जरिये आप इस कठिन समय से बाहर आएंगे और बुद्धिमत्ता की जिस तरकीब के जरिये आप बुरे वक्त से बाहर निकलेंगे, वह तरकीब ही साबित करेगी कि आपमें प्रतिकूल समय से बाहर निकलने की कितनी क्षमता है।
क्राइसेस के समय क्षमताएं निकलती हैं बाहर
कई बार हम कुछ खिलाड़ियों के बारे में यह कहा करते हैं कि यह खिलाड़ी बड़े मैच या मंच का खिलाड़ी है अथवा क्राइसेस के समय ही इसकी क्षमताएं निकलकर बाहर आती हैं। जाहिर है, ऐसा खिलाड़ी सबसे महत्वपूर्ण होता है। उदाहरण के लिए हाल में भारत द्वारा जीते गए टी-20 विश्व कप के पूरे टूर्नामेंट में विराट कोहली बिल्कुल नहीं चल रहे थे। लेकिन ज्यादातर एक्सपर्ट यह मानकर चल रहे थे कि फाइनल में विराट कोहली जरूर चलेंगे, उनका बल्ला बोलेगा और एक्सपर्ट यह भी कह रहे थे कि अगर फाइनल में विराट कोहली नहीं चले तो भारत का जीतना मुश्किल होगा।
देखा जाए तो सबकुछ ऐसा ही हुआ। फाइनल में विराट कोहली ने 59 गेंदों में शानदार 76 रन बनाए और उन्हीं के रनों की बदौलत भारत ने दक्षिण अफ्रीका को 20 ओवर में 177 रनों का टारगेट दिया। अगर कोहली ने इस निर्णायक मैच में यह जीवटभरी ईनिंग न खेली होती तो भारत का जीतना बहुत मुश्किल था। वास्तव में ऐसे ही कठिन समय पर दिखायी गई जीवटता और कुशलता को ही एडवर्सिटी क्वेशेंट या ‘प्रतिकूलता गुणांक’ कहते हैं।
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इंटेलीजेंस क्वेशेंट से बुद्धि की गणना
पिछले कुछ दशकों में अलग-अलग बुद्धिमत्ता पैमाने पर लोगों की प्रतिभा को कसने के बाद अब मनोवैज्ञानिक निर्णायक रूप से इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि जिंदगी में सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण कठिन समय में दिखायी गई कुशलता या बुरे वक्त की वह बुद्धिमत्ता ही होती है, जिसकी बदौलत कोई व्यक्ति अपने बुरे दिनों से बाहर आता है। यह कुशलता कई तरह से व्यक्त होती है। अपने लिए सहानुभूति हासिल करके, आत्म जागरूकता की ऊंचाईयां छूकर, जबरदस्त अनुशासन या आत्म नियमन का माद्दा दिखाकर, प्रेरणा के सबसे ऊंचे पायदान में खड़े होकर प्रेरित होने और सामाजिक रूप से हर पैमाने पर कुशल साबित होने से यह बुद्धिमत्ता विजयी कौशल बनकर सामने आती है।
अगर हम मानते हैं कि अलग-अलग लोगों में उनकी बुद्धि का स्तर अलग अलग होता है, तो जाहिर है बुद्धि के मापने का कोई पैमाना भी होगा। 1912 में मशहूर मनोवैज्ञानिक विलियम स्टर्न ने दुनिया को बताया कि यह पैमाना IQ यानी इंटेलीजेंस क्वेशेंट है। इस पैमाने के मुताबिक हर व्यक्ति की मानसिक क्षमता का अलग-अलग स्कोर होता है। यही स्कोर या संख्या बताती है कि कोई व्यक्ति अपने समूह के दूसरे लोगों के मुकाबले कम बुद्धिमान है या ज्यादा।
आइंस्टीन का आईक्यू 160 था
हालांकि बुद्धि की गणना का यह पैमाना अकसर विवादों में भी घिरा रहता है, क्योंकि जहां इस पैमाने के तहत आइंस्टीन का आईक्यू 160 और न्यूटन का आईक्यू 190 माना जाता है, वहीं 1898 में न्यूयार्क में जन्मे विलियम जेम्स का आईक्यू 250 से 300 के बीच माना जाता है। दरअसल 145 से 160 के बीच अगर किसी का आईक्यू है, तो उसे जीनियस कहा जाता है। लेकिन विलियम जेम्स का आईक्यू तो 250 से 300 के बीच था, फिर उसे किस श्रेणी में रखा जाए? जेम्स में निःसंदेह असाधारणता के कुछ गुण थे, जैसे 18 माह की आयु में उसने न्यूजपेपर पढ़ना शुरू कर दिया था, 9 साल की उम्र में वह हार्वर्ड विश्वविद्यालय पहुंच गया था।
माना जाता है कि उसने 40 भाषाओं में मास्टर डिग्री हासिल की थी। लेकिन इन कुछ चमत्कार से लगने वाले व्यक्तिगत गुणों के अलावा जेम्स के नाम कोई ऐसी खोज नहीं है, जिसने दुनिया को बदलकर रख दिया हो, जैसे आइंस्टीन और न्यूटन के आईक्यू के चलते हुआ। बहरहाल इस बहस के बावजूद यह भी तय है कि किसी और सटीक पैमाने के न होने के कारण बुद्धिमत्ता को क्वेशेंट के पैमाने से तो परखना ही पड़ेगा। पिछले कुछ दशकों में अकेला आईक्यू ही किसी की मानसिक क्षमता को परखने का एकमात्र पैमाना नहीं रहा, क्योंकि मानसिक क्षमताओं की भी अल-अलग परिस्थितियों में अलग-अलग तरह से परख होती है।
इसलिए अब अलग-अलग मौकों में बुद्धिमत्ता की परख के लिए अलग-अलग पैमाने भी इस्तेमाल में लाए जाते हैं। जैसे- आईक्यू के अलावा ईक्यू यानी इमोशनल क्वेशेंट, एसक्यू यानी सोशिएल क्वेशेंट और अब हाल के दिनों में बुद्धिमत्ता का एक नया पैमाना, जो पूरी दुनिया में तहलका मचाए हुए है, वह है एक्यू यानी एडवर्सिटी क्वेशेंट या बुरे वक्त में दर्शाई गई बुद्धिमत्ता अथवा कह सकते हैं कठिन समय की कुशलता। ‘एडवर्सिटी क्वेशेंट’ इन दिनों खूब चर्चा में है और हाल फिलहाल में यह किसी इंसान की बौद्धिक परख का सबसे निर्णायक पैमाना बन गया है।
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चुनौतियों से निपटने की कितनी कुशलता
एक्यू से मुराद ऐसे समय पर दर्शाई गई बुद्धिमत्ता है, जब वाकई बहुत बुरा वक्त हो और सामान्य व्यक्ति को उससे निकलने का कोई उपाय न सूझे। मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि किसी व्यक्ति में चुनौतियों से निपटने की कितनी कुशलता है, इसकी सबसे अच्छी परख उसके बुरे वक्त पर ही होती है। क्योंकि बुरे वक्त पर ज्यादातर लोग बुद्धिमत्तापूर्ण व्यवहार नहीं कर पाते। इसे इस तरह से समझ लीजिए कि कई बहुत अच्छे और सज्जन लोग भी गुस्से के समय पूरी तरह से अपना आपा खो देते हैं और वह उतनी ही बुरी तरह से लड़ते हैं, जितनी बुरी तरह से आम गैर पढ़े-लिखे लोग लड़ते हैं या दूसरे शब्दों में गंवार लोग जिस तरह से बुरे समय में व्यवहार करते हैं, वैसा ही व्यवहार कई अच्छे लोग भी अपने बुरे वक्त पर करते हैं।
इसलिए बुद्धिमत्ता की कसौटी पर ऐसे लोगों को बुद्धिमान नहीं माना जा सकता। एडवर्सिटी क्वेशेंट प्रतिकूलता का गुणांक है। हर व्यक्ति अपने सामने आई चुनौतियों से निपटने का कोई न कोई तरीका अपनाता है। जिस व्यक्ति का ऐसी चुनौतियों से निपटने का तरीका सबसे कारगर और मौजूदा परिस्थितियों में सबसे मौजूं होता है, वास्तव में वही बुद्धिमान है। इसलिए देखने में आता है कि कई सफल लोग भले आम समय पर ज्यादा कुछ न बोलें, बढ़-चढ़कर अपनी समझदारी न दिखाएं, लेकिन जब बुरा वक्त आता है तो वे बहुत ही बुद्धिमत्तापूर्ण ढंग से उस बुरे वक्त से बाहर निकल आते हैं।
माना जाता है कि कार्पोरेट सफलता के सबसे ऊंचे पायदान में आईक्यू बहुत महत्वपूर्ण नहीं होता, क्योंकि यहां तक अगर कोई पहुंचा है तो उसकी दिमागी क्षमता सामान्य लोगों से तो ज्यादा होगी ही। इस स्तर पर ईक्यू भी बहुत महत्वपूर्ण नहीं रह जाता, क्योंकि सफलता के सबसे ऊंचे पायदान पर या बहुत ऊंचे पायदान पर भावनाएं गौण हो जाती हैं और इस स्तर पर सामाजिकता भी कम से कम उतनी अर्थपूर्ण नहीं रहती, जितनी निचली स्तर के लोगों के लिए सामाजिकता की कीमत होती है।
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