Misunderstanding: एक झुके तो दूसरा भी झुक जाए..इसीमें भलाई है..
Misunderstanding: वास्तव में गलतफहमी किसी एक तरफ से नहीं पैदा होती और कभी भी किसी की गलतफहमी कम खराब या किसी की ज्यादा खराब नहीं होती। हर तरह की गलतफहमी के पीछे एक इगो, एक मतलबीपन और एक स्वार्थ छिपा होता है लेकिन कई बार यह बहुत तीखे स्तर का नहीं होता जैसा कि मान लिया जाता है बल्कि यह बस यूं ही खेल-खेल में हो जाता है।
कई बार छोटी सी गलती सोचने और बार-बार उस पर नये-नये विश्लेषण जोड़ने के कारण बहुत बड़ी गलती लगने लगती है और यह बड़ी गलतफहमी का रूप ले लेती है। फिर अगर सालों बाद पता चले कि ऐसा कुछ था ही नहीं, वह तो महज हमारी गलतफहमी थी तो फिर बहुत पछतावा होता है लेकिन उस पछतावे का कोई मतलब नहीं होता, हम मन मसोसकर रह जाते हैं।

जितना जल्दी हो सुलझा लें मामला
याद रखिए जब एक बार लंबे समय तक आप किसी बात को लेकर, किसी व्यक्ति को लेकर, किसी धारणा को लेकर गलतफहमी में रहते हैं तो बाद में अगर वह गलतफहमी दूर भी हो जाएं तो फिर उसका कोई मतलब नहीं होता और न ही फिर उससे हमें कोई बहुत फायदा होता है। इसलिए शुरू से ही गलतफहमियों से दूर रहें, यही जिंदगी के लिए अच्छा होता है।
गलतफहमी चाहे गर्लफ्रेंड-ब्वॉयफ्रेंड के बीच हो या पति-पत्नी के, गलतफहमी को जितना जल्दी हो स्पष्ट कर लेना चाहिए क्योंकि अगर यह बिना स्पष्ट किए पड़ी रही तो धीरे-धीरे इस कदर बढ़ जाती है कि दोनों के बीच रिश्तों में दरार तो आती ही है, कई बार इस कारण एक तीसरा कोण भी उभर आता है जो जिंदगी के लिए बहुत ही खतरनाक होता है।
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इगो के दुगने वेग से आता है
समझदार लोग कहते हैं, गलती भले एक की हो लेकिन झुक दोनों को जाना चाहिए क्योंकि अगर एक झुकता है तो भले वह उस समय झुक जाए लेकिन बाद में और अकेले में उसे लगता है कि उसे जानबूझकर नीचा दिखाया गया है। दूसरे ने जानबूझकर उसे झुकने के लिए मजबूर किया है। इसका नतीजा यह निकलता है कि जो तात्कालिक रूप से झुक गया था, बाद में वह इगो के दुगने वेग से एवरेस्ट पर चढ़ जाता है जहां न चढ़ने के लिए उसने पहले दिलदारी दिखायी थी। इसीलिए जरूरी है कि अगर एक झुके तो दूसरा भी झुक जाए, भले उसके झुकने की कोई वजह न हो।
इससे जिसने गलती की होती है, उसके अंदर अपने झुकने को लेकर किसी तरह के हीनताबोध की गांठ नहीं बनती। गलतफहमियां आमतौर पर इसलिए होती हैं कि हम गलतफहमियों को उनके स्रोत की जगह दुरुस्त करने की जरूरत नहीं समझते। हम किसी दूसरे व्यक्ति से अपने बारे में दूसरे की राय सुनते हैं और उसे सही मान लेते हैं जबकि होना यह चाहिए कि हमने अगर अपने बारे में किसी दूसरे के मुंह से किसी और की धारणा जानी है तो सबसे पहले उसी से सीधे संपर्क करके पूछ लेते हैं कि उसकी इस धारणा का आधार क्या है?
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तनाव और असमंजस से बचाव
अगर आपको लगता है कि उसने यह धारणा गलत बनायी है तो उसे स्पष्ट किया जा सकता है और इस तरह गलतफहमी को दूर किया जा सकता है। इससे न सिर्फ हम खुद तनाव से बच जाते हैं बल्कि उस व्यक्ति को भी तनाव और असमंजस से बचाते हैं जिसने अगर वास्तव में ऐसा न कुछ कहा हो और हम फिर भी उससे मुंह फुला लें या ऐसा व्यवहार करें जिसकी उम्मीद न की जाती हो।
कहने का मतलब यह है कि गलतफहमी को जल्द से जल्द दूर करने में एक नहीं दो लोगों का फायदा होता है। एक जिसने गलतफहमी पाली होती है और दूसरा वह जिसकी वजह से यह गलतफहमी बनती है। जब हम ऐसे मामलों में सीधे बात करके जानने की कोशिश करते हैं तो अगर वास्तव में ऐसा कुछ हुआ भी होता है तो वह खत्म हो जाता है और अगर कुछ नहीं हुआ होता, सिर्फ गलतफहमी ही हुई होती है तो तब तो ऐसा करना बहुत ही फायदे का सौदा होता है।
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