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New Generation: हर चीज करना चाहती है नई पीढ़ी

New Generation: 50 और 60 के दशक में पश्चिमी दुनिया के मां-बाप ने अपने बच्चों को सब कुछ बनाने के चक्कर में उन्हें बेचैन पीढ़ी में तब्दील कर दिया।

WeStory Editorial Team
Last updated: 2024/07/11 at 4:23 PM
WeStory Editorial Team
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10 Min Read
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New Generation: कम उम्र के बच्चों को स्टार बनाने की चाहत

New Generation: 50 और 60 के दशक में पश्चिमी दुनिया के मां-बाप ने अपने बच्चों को सब कुछ बनाने के चक्कर में उन्हें बेचैन पीढ़ी में तब्दील कर दिया। उस समय भारत का मध्यवर्ग अपने बच्चों में इस तरह के प्रयोग कर पाने की हैसियत में नहीं था क्योंकि न तो इसके लिए उनके पास संसाधन थे, न ही सपने। तब अपने यहां व्यावहारिक दुनिया में कोई प्रतिस्पर्धा भी नहीं थी लेकिन पिछली सदी के 90 के दशक में भारत में भी अभिभावकों की वह पीढ़ी उभरने लगी। सातवें वेतन आयोग के बाद सरकारी कर्मचारियों को भी अच्छी खासी तनख्वाहें मिलने लगी थीं।

Table of Contents
New Generation: कम उम्र के बच्चों को स्टार बनाने की चाहतअच्छा सा अच्छा खिलाने की कोशिशमाइंडलेस स्क्रॉलिंग का शिकारडिजाइनर कपड़ों की कई हजार गुना मांग बढ़ीएक जगह टिकती नहींबच्चों को कम्प्यूटर सिखाया, योग में पारंगत किया

इसलिए अपनी संतानों को सब कुछ बनाने वाली पश्चिमी बीमारी यहां भी आ धमकी। भारतीय अभिभावक भी अपने बच्चों में डिजाइनर बेबी देखने लगे। जो हड़बड़ी, जो अंधीदौड़ अमेरिका और यूरोप ने पिछली सदी के 50 और 60 के दशक में देख ली थी, भारत में वह दौड़ पिछली सदी के आखिरी दशक में आयी जब महानगरीय मां-बाप अपने बच्चों में कूट कूटकर सारी खूबियां भर देने को उतावले हो गए। अपने बहुत कम उम्र के बच्चों को भी वे स्विमिंग स्टार की तरह देखने लगे, भले उनसे कोई खजान सिंह न निकला हो।

New Generation
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अच्छा सा अच्छा खिलाने की कोशिश

90 के दशक के अंत तक दिल्ली जैसे शहर में अंग्रेजी स्कूलों से पढ़कर दोपहर में घर लौटने वाले मासूम रात 10 बजे तक चकरघिन्नी की तरह घूमने लगे। प्राइमरी या सेकंडरी स्कूलों में पढ़ने वाले इन छात्रों को उनके मां-बाप दोपहर में इनके स्कूल से लौटने के बाद अच्छा सा अच्छा खिलाने की कोशिश करने लगे। थोड़ी देर रिलैक्स के बाद उन्हें स्विमिंग सीखने से लेकर गिटार सिखाने तक की दसियों कक्षाओं से बांध दिया। नतीजा यह निकला कि ये सही मायनों में न अच्छे तैराक बन सके, न ही अच्छे पढ़ाकू बन सके। सब कुछ थोड़ा-थोड़ा बनने में ज्यादा और कम्प्लीट कुछ न बन सके और 21वीं सदी के दूसरे दशक के बीतते-बीतते हर जगह ‘पॉपकॉर्न ब्रेन’ टर्म रातोरात मशहूर हो गयी।

भारत में भी मां-बाप अपने बच्चों को ठोक बजाकर उन पर अपनी इच्छाएं थोपने लगे और सब कुछ बनने या बनाने के दबाव में इस दौर में बड़े हुए ज्यादातर नौजवान ‘पॉपकॉर्न ब्रेन’ वाले नौजवान बनकर रह गए। किसी भी विषय पर देर तक और मनचाहा सोचने वाले न बन सके। हमेशा आधी-अधूरी रेस में रहने को मजबूर हो गए क्योंकि इस जनरेशन का न तो कहीं पूरी तरह से ध्यान लगता है, न ही किसी एक शिड्यूल पर ये कायम रह पाते है, न किसी एक काम को प्राथमिकता दे पाते हैं।

New Generation
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माइंडलेस स्क्रॉलिंग का शिकार

यह जनरेशन हर चीज करना चाहती है, कुछ भी नहीं छोड़ना चाहती। यही नहीं, ये नियमित ब्रेक भी लेना चाहती है। इन्हें मालूम नहीं कि इन्हें किस तरह के शौक हैं और क्यों हैं? दरअसल ये माइंडलेस स्क्रॉलिंग का शिकार हैं। ये लगातार चीजों से घूमते रहते हैं। यही वजह है कि कभी इस पीढ़ी को रिमोर्ट जरनेशन भी कहा गया था क्योंकि ये लोग कोई प्रोग्राम 5 मिनट तक भी टिककर नहीं देख पाते। बार-बार रिमोट के जरिये चैनल बदलते रहते हैं। अब मनोवैज्ञानिकों ने इन्हें ‘पॉपकॉर्न ब्रेन’ जनरेशन का नाम दिया है।

हालांकि इस शब्द का जन्म 2011 में वाशिंगटन यूनिवर्सिटी के एक शोधकर्ता डेविड लेवी के द्वारा हुआ लेकिन डिजिटल विकर्षणों की शिकार इस जनरेशन को ‘पॉपकॉर्न ब्रेन’ पीढ़ी अभी ही जोर-शोर से कहा जाना शुरू हुआ है क्योंकि डिजिटल युग की अर्थव्यवस्था ने इस अस्थिर दिमाग को अच्छी तरह से भुनाना जो शुरू कर दिया है। स्थाई आकर्षण से रहित यह पीढ़ी हर 2 साल बाद पुराने एपल मोबाइल को फेंककर नया मोबाइल लेना चाहती है। यह चीजों के यूज एंड थ्रो पर विश्वास करती है।

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डिजाइनर कपड़ों की कई हजार गुना मांग बढ़ी

डिजाइनर कपड़ों की पिछले 20-22 सालों में जो कई हजार गुना मांग बढ़ी है, वह कभी न बढ़ती अगर दुनिया में एक ताकतवर ‘पॉपकॉर्न ब्रेन’ पीढ़ी न पैदा हो गयी होती क्योंकि एक जमाने में कपड़े नई डिजाइन के लिए नहीं पहने जाते थे बल्कि शरीर के लिए पहने जाते थे और वे तब तक के लिए होते थे जब तक वे ठीक-ठाक बने रहें। अब सेलिब्रिटीज को छोड़ दीजिए, आम मध्यवर्ग में भी ऐसे लाखों युवा हैं जो कपड़े अपनी जरूरत, अपनी इच्छा के लिए नहीं पहनते बल्कि वे लगातार नये से नये कपड़े इसलिए पहनते हैं क्योंकि कपड़ों के बदलते हुए ट्रेंड में वे प्रासंगिक बने रहें। कारों, मोटरसाइकिलों, मोबाइल फोन, लैपटॉप, म्यूजिक इंस्ट्रूमेंट, ये सब चीजें पिछले दो दशकों में ही इस कदर अपनी कृत्रिम मांग का शिकार हुई हैं कि मुट्ठीभर ग्राहकों के बावजूद इन सबकी मांग पिछले 2 दशकों से लगातार उपलब्धता से 5 से 10 फीसदी ज्यादा बनी हुई है। यह सब इसलिए हो रहा है क्योंकि एक व्यापक पीढ़ी अस्थिर है। इसे क्या चाहिए, इसे खुद नहीं पता, बस चाहिए। यही वजह है कि पूरी दुनिया के लिए यह पीढ़ी ऊबाऊ पीढ़ी बनती जा रही है।

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एक जगह टिकती नहीं

आज की पीढ़ी के साथ सबसे बड़ी समस्या यह है कि वह एक जगह टिक तो सकती ही नहीं। आप कितना ही अच्छा कोई वीडियो बना लें और चाहें कि आधे घंटे तक टिककर उसे आज की जनरेशन देख ले तो यह मुश्किल है। वजह है, इनका ‘पॉपकॉर्न ब्रेन’। जी हां, आजकल यह टर्म बहुत चलन में है। इसका मतलब है एक ऐसी जनरेशन जिसके दिमाग में हर समय कोई न कोई नया विचार मकई के दाने यानी पॉपकॉर्न की तरह पट-पट करके फूटता ही रहता है लेकिन कोई कितना ही अच्छा विचार क्यों न फूट जाए, यह पीढ़ी किसी के साथ देर तक नहीं टिकती।

एक विचार आया, कौंधा, मन को अच्छा लगा कि तब तक दूसरा विचार आ गया। इस नए विचार ने कुछ देर तक रोमांचित किया और लगा कि जो खेाज रहे थे, मिल गया लेकिन तब तक फिर कोई नई बात सूझ गयी। इस तरह यह पीढ़ी लगातार एक के बाद दूसरे, दूसरे के बाद तीसरे विचारों की तरफ भागमभाग में लगी रहती है। इस पीढ़ी का दिमाग वाकई उर्वर है। इसे लगातार नये से नये विचार सूझते भी हैं।

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बच्चों को कम्प्यूटर सिखाया, योग में पारंगत किया

अफसोस यह कि यह पीढ़ी किसी विचार के साथ देर तक रुक-टिक नहीं पाती। इसलिए मनोवैज्ञानिक इन्हें ‘पॉपकॉर्न ब्रेन’ जनरेशन कहते हैं। सवाल यह कि इनके इस ‘पॉपकॉर्न ब्रेन’ के लिए जिम्मेदार कौन है? निश्चित रूप से इनके अभिभावक। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद यूरोप और अमेरिका में जब युद्धों की आशंका कुछ कम हुई, स्थिरता बढ़ी और तेज नवनिर्माण के कारण खुशहाली आयी तो अचानक उस दौर के अभिभावकों को लगा कि उन्होंने जैसी अभावों और कष्टों वाली जिंदगी जी है, अपनी संतानों को वे वैसी जिंदगी नहीं जीने देंगे।

वे उन्हें उन तमाम खूबियों से लैस करेंगे जो इंसान होने की खूबियां होती हैं, जिन्हें हम विभिन्न कलाओं के नाम से जानते हैं। यही वजह है कि पिछली सदी के 50 और 60 के दशक में अमेरिका और यूरोप में अभिभावकों ने अपने नौनिहालों को वह सब कुछ बनाने की भागमभाग में जुट गए। कभी वे खुद जो सब बनना चाहते थे लेकिन बन नहीं सके। इस दौर के मां-बाप अपने बच्चों को कम्प्यूटर सिखाया, योग में पारंगत किया, कम से कम एक या दो म्यूजिक इंस्ट्रूमेंट्स सिखाया, एक-दो फाइन आर्ट भी सिखवाया, थियेटर में हिस्सेदारी कराई।

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