World Wildlife – 60 हजार विविध प्रजातियां पृथ्वी के बायोमास का सबसे बड़ा हिस्सा
World Wildlife: दुनियाभर में तेजी से विलुप्त हो रहे पेड़-पौधों और जीव-जंतुओं के संरक्षण के प्रति लोगों को जागरूक करने की बहुत जरूरत है। वर्तमान में जरूरी है कि लोगों को जंगली वनस्पतियों और जीवों की विभिन्न प्रजातियों के संरक्षण के फायदे बताकर जागरूक किया जाये और वन्यजीव अपराध और वनों की कटाई के कारण वनस्पतियों और जीवों को होने वाले नुकसान को रोकने के लिए आह्वान किया जाये।
धरती पर मौजूद सभी रचनाओं में पेड़ सबसे सुंदर और परिचित हैं। इनसे धरती की पहचान है। यहां मौजूद पेड़ों की करीब 60 हजार विविध प्रजातियां पृथ्वी के बायोमास का सबसे बड़ा हिस्सा हैं। ये पृथ्वी के वन आवरण के वितरण, संयोजन और संरचना को नियंत्रित करने के अलावा पारिस्थितिकी सेवाएं भी मुहैया कराते हैं। पृथ्वी की जैव विविधता के विकास के साथ-साथ पेड़, जीवों व वनस्पतियों को आवास उपलब्ध कराने और भोजन, ईंधन, लकड़ी, औषधीय उत्पादों व अन्य चीजों के जरिए जीवन व आजीविका को बनाए रखने में बेहद महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

वे पौधे जो लुप्त हो चुके हैं
होपिया शिंकेंग- ये पौधा पूर्वी हिमालय में कभी बड़ी संख्या में पाया जाता था, लेकिन बीते 100 वर्ष से ये नजर नहीं आता।आइलेक्स गार्डनेरियाना- ये सदाबहार प्रजाति का वृक्ष है। अंतरराष्ट्रीय प्रकृति संरक्षण संघ (IUCN) के अनुसार ये अब भारत में खत्म हो चुका है। इसके खत्म होने की मुख्य वजह तेजी से जंगलों की कटाई को माना गया है।
मधुका इंसिग्निस- ये पौधा कभी कर्नाटक में पाया जाता था, लेकिन अब ये वर्षों से नजर नहीं आया है। आईयूसीएन की 1998 में जारी सूची में इसे विलुप्त की श्रेणी में रखा गया है।
स्टरकुलिया खासियाना- मेघालय के खासी जनजातीय पहाड़ी क्षेत्रों में पाया जाने वाला ये पौधा भी भारत में बहुत तेजी से खत्म हुआ है। आईयूसीएन ने इसे भी लुप्त हो चुके पादपों की श्रेणी में रखा है। हालांकि इसकी सह प्रजातियों के जरिए इसे फिर से जंगल में लौटाने का प्रयास किया जा रहा है।
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जीव-जंतु जो हो चुके हैं लुप्त
नॉर्दर्न वाइट राइनोसॉरस- नॉर्दर्न वाइट राइनोसॉरस अंतिम नर की 2018 के मार्च में मृत्यु हो गई थी। अब आखिरी दो जीवित उत्तरी वाइट राइनोसॉरस हैं और दोनों मादा हैं। जाहिर है कि दोनों जन्म देने में असमर्थ हैं। ऐसे में इस प्रजाति को विलुप्त माना जा रहा है। इसकी सबसे बड़ी वजह इनका शिकार है।
डोडो- डोडो एक पक्षी था जो कभी मॉरीशस में पाया जाता था। आखिरी बार डोडो को 1660 के दशक में देखा गया था। नाविकों ने डोडो का खूब शिकार किया और तमाम जानवरों ने इनके अंडे खाए, जिसके कारण ये प्रजाति विलुप्त हो गई।
पैसेंजर पीजन- पहले पैसेंजर पीजन (यात्री कबूतर) की संख्या लाखों में हुआ करती थी, लेकिन अब ये नजर नहीं आते। कहा जाता है कि लोगों ने इनका जमकर शिकार किया, जिसकी वजह से ये गायब हो गए।
गोल्डन टॉड- गोल्डन टॉड आखिरी बार 1989 में देखा गया था। इसके बाद ये कभी नजर नहीं आया। साल 1994 में इसे विलुप्त घोषित कर दिया गया। माना जाता है कि एक घातक त्वचा रोग ने इसकी आबादी को नष्ट कर दिया था। प्रदूषण, ग्लोबल वार्मिंग और चिट्रिड त्वचा संक्रमण आदि को इसके विलुप्त होने की वजह माना जाता है।
डच बटरफ्लाई- एल्कॉन ब्लू कलर की डच बटरफ्लाई की एक उप-प्रजाति मुख्य रूप से नीदरलैंड के घास के मैदानों में पाई जाती थी। आखिरी बार इसे 1979 में देखा गया था। खेती और घरों के ज्यादा निर्माण से एल्कॉन ब्लू के घरों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा और धीरे-धीरे ये विलुप्त हो गई।

वनवासियों को अपना दायरा बढ़ाना चाहिए
स्टेट ऑफ द वर्ल्ड्स ट्रीज रिपोर्ट ने संरक्षण प्रयासों के लिए डेटाबेस मुहैया कर सूचनाओं की कमियों को कम करना शुरू कर दिया है। अब समय आ चुका है कि हम और अधिक प्रजातियों को विलुप्त होने से रोकें और बिगड़े हुए पारितंत्रों को फिर से बहाल करें। प्रभावी संरक्षण कार्यों के लिए पर्यावरण के लिए समर्पित नीतिगत ढांचे की आवश्यकता होती है। केंद्र सरकार ने वन संसाधनों की रक्षा के लिए तो लगातार पर्याप्त प्रयास किए, लेकिन संकटग्रस्त प्रजातियों के संरक्षण पर बहुत कम ध्यान दिया। वनवासियों को अपना दायरा बढ़ाना चाहिए।
महज सामान्य प्रजातियों के वृक्षारोपण से आगे बढ़कर वनीकरण और पुनर्जनन गतिविधियों को प्रोत्साहित करने के लिए दुर्लभ, संकटग्रस्त स्थानिक प्रजातियों को विलुप्त होने से रोकने और उनके उत्थान को बढ़ावा देने का काम करना चाहिए। इसके लिए गैर-वन उपयोगों के लिए दी गई वन भूमि की भरपाई के तौर पर स्थापित कॉम्पनसेटरी अफॉरेस्ट्रेशन फंड मैनेजमेंट एंड प्लानिंग अथॉरिटी (कैम्पा) जैसे विभिन्न संसाधनों का उपयोग करना चाहिए। सिर्फ एक या फिर कई तरह की प्रजातियों के संरक्षण के लिए धरातल पर कार्रवाई की जा सकती है।
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