Fought for Freedom – अंग्रेजों के विरुद्ध बड़े पर्दे पर आंदोलन
Fought for Freedom: आजादी से पहले अंग्रेजों का भले कितना ही खौफ रहा हो, लेकिन भारतीय फिल्मकारों ने डर के बावजूद अपने स्तर पर आजादी की लड़ाई लड़ी थी। कई लोग इसे आजादी की दूसरी लड़ाई भी कहते है। क्योंकि यह लड़ाई हमारे अपने ही हुक्मरानों के विरुद्ध बड़े पर्दे पर लड़ी गई। सिर्फ बॉलीवुड की बड़ी बजट की फिल्मों ने ही नहीं, बल्कि कोलकाता, त्रिवेंद्रम, बेंगलुरू, हैदराबाद और चेन्नई की रीजनल फिल्म इंडस्ट्रीज ने भी अपने स्तर पर इसमें जबरदस्त भूमिका निभायी है।
आजादी के बाद पिछले साढ़े सात दशकों में हमने कई सैद्धांतिक और व्यवहारिक परिवर्तनों को बुनियादी आकार लेते देखा है। जब 1975 में भारत की तत्कालीन सरकार ने आपातकाल लगाया, तो उसके बाद कम से कम दो दर्जन ऐसी फिल्में बनी हैं, जिन्होंने तत्कालीन सरकार बल्कि लोकतंत्र के मौजूदा पहरूओं को भी अपने स्तर पर आईना दिखाया है। इससे साबित होता है कि भारतीय लोकतंत्र एक जीवंत अध्याय है और हमारी फिल्मों ने भी इसे अपने स्तर पर झकझोरने का भरपूर प्रयास किया है।

स्वतंत्र चेतना की प्रतीक हीरक राजार देशे
1980 में बांग्ला भाषा में निर्माता निर्देशक सत्यजित रे की एक फिल्म आई थी ‘हीरक राजार देशे’। यह फिल्म वास्तव में स्वतंत्र सोच, आम लोगों की लोकतांत्रिक ताकत और संगीतमय मौलिक उत्सव की चेतना की बानगी थी। इसमें तपन चटर्जी, रवि घोष, उत्पल दत्त, सौमित्र चटर्जी, संतोष दत्ता और अजय बनर्जी ने अभिनय किया था। यह फिल्म वास्तव में इंदिरा गांधी के इमरजेंसी जैसे फैसले की आलोचना करने के लिए बनायी गई फिल्म थी। सत्यजित रे ने इसे अपनी 1969 में बनायी गई बच्चों की फिल्म ‘गोपी गाइन बाघा बाइन’ की अगली कड़ी के रूप में बनाया था। लेकिन यह फिल्म बच्चों के लिए नहीं, बल्कि तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के तानाशाही नजरिये पर जोरदार हमला करने की अभिव्यक्ति थी। इस फिल्म में नायक जादुई संगीतकार गोपी और बाघा हिरक नामक एक राज्य में पहुंचते हैं, जहां वे लोगों के बीच बेहद पीड़ा और भुखमरी पाते हैं।
लेकिन वो यह भी देखते हैं कि उनकी इस पीड़ा और भुखमरी से उस राज्य के तानाशाह शासक को कोई चिंता नहीं है। वह भयावह परिस्थितियों के बावजूद आम लोगों से जबरदस्त धन की वसूली करता है यानी टैक्स में कोई रियायत नहीं देता। राजा के मंत्री इस मामले में राजा की ‘हां’ में ‘हां’ मिलाते रहते हैं। जो इस संदर्भ में असहमति जताता है, तो उस असहमति को बेहरमी से कुचल दिया जाता है और विद्रोहियों को पकड़ पकड़कर दिमाग धोने वाली एक ऐसी मशीन से गुजारा जाता है, जिससे कि उनका सारा नजरिया बदल जाता है। इस फिल्म में एकमात्र ऐसा किरदार जो संवादों को तुकबंदी की शैली नहीं बोलता, वह एक शिक्षक होता है। सत्तावादी शासक के खिलाफ मचे विद्रोह में गोपी और बाघा का यह समर्थन प्राप्त करता है।

दूसरी आजादी की कीमत समझाती कथापुरुषन
उस दौरान कई ऐसी फिल्में आईं, जिन्होंने आजादी के बाद स्वतंत्रता के महत्व को रेखांकित करने के लिए अपनी तरह से महत्वपूर्ण योगदान दिया। जैसे- 1995 में आयी मलयालम फिल्म ‘कथापुरुषन’। इस फिल्म में स्वतंत्रता संग्राम, महात्मा गांधी की हत्या, केरल में दुनिया की पहली लोकतांत्रिक रूप से चुनी गई कम्युनिस्ट सरकार का आगमन और आपातकाल की घोषणा नाटक की पृष्ठभूमि प्रदान करती है। इस फिल्म के निर्देशक अडूर गोपालकृष्णन हैं। इसमें विश्वनाथन, मिनी नायर, अरनमुला, पोन्नम्मा, नरेंद्र प्रसाद, उर्मिला उन्नी आदि ने बेहतरीन अभिनय किया था, जो कि अडूर गोपालकृष्णन की बेहतरीन फिल्म का जादुई मिथक रचती है। यह अडूर गोपालकृष्णन की बेहतरीन फिल्म है जो नायक को अनुशासन और राजनीतिक कंडीशनिंग के बावजूद मानवीय भावनाओं की प्रस्तुति के लिए मौका देती है।
यहां अडूर गोपालकृष्णन का नायक एक ऐसा व्यक्ति है, जो अपनी स्वतंत्रता के साथ दूसरों की स्वतंत्रता को भी महत्व देता है। इस फिल्म में कुंजुन्नी हकलाने की बीमारी से पीड़ित है, इसके बावजूद उसमें एक ऐसी आंतरिक शक्ति है, जो उसे हर अनुभव को एक नई शुरुआत में बदलने में मदद करती है। ऐसी फिल्में हमारी आजादी के महत्व को पोयटिक महत्व देती हैं। इसलिए ये फिल्में सिर्फ तात्कालिक स्तर पर या अपनी पृष्ठभूमि के लिहाज से ही महत्वपूर्ण नहीं मानी जाती, बल्कि आजादी के बाद के उन महत्वपूर्ण संदर्भों के चलते बेमिसाल फिल्मों में गिनी जाती हैं, जिन्होंने हमारी दूसरी आजादी की कीमत को समझा और आजादी की लड़ाई को आजादी के बाद भी जारी रखा। इसलिए सिनेमा को अभिव्यक्ति के किसी भी माध्यम में सबसे महत्वपूर्ण और सबसे संवदेनशील माध्यम माना है।

इन फिल्मों ने भी किया सिस्टम पर प्रहार
हालांकि ये दो फिल्में ही नहीं है बल्कि देश के विभिन्न भाषाओं की लगभग 20 फिल्मों ने इस तरह की संवेदनशील कथा प्रस्तुति की है, जिनमें हिंदी की ‘हजारों ख्वाहिशे ऐसीं’ (2003), तमिल में ‘इरुर्वर’ (1997), ‘मुधावलन’ (1999), ‘सरकार’ (2018), हिंदी में ‘भूतनाथ’ रिटर्नस (2014), ‘न्यूटन’ (2017), ‘कोर्ट’ (मराठी, हिंदी, गुजराती-2014), ‘निर्वचन’ उड़िया (1994), ‘पंचवडी पालम’ मलयालम (1984), ‘सिंहासन’ मराठी (1979), ‘स्वदेश’ हिंदी (2004), ‘मी सिंधुताई सपकाल’ मराठी (2010), ‘हू तू तू’ हिंदी (1999), ‘देव’ हिंदी (2004), ‘लीडर’ हिंदी (1964), ‘पीपली लाइफ’ हिंदी (2010), ‘डॉ. प्रकाश बाबा आमटे’ मराठी (2014), अंतरांद हिंदी (1991), ‘इंडियन’ तमिल (1996), जैसी फिल्मों ने भी हमें आजादी के बाद आजादी बचाने की संवदेना दी है।
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