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Reading: Voices of women’s in Hindi literature: हिंदी साहित्य में महिला चेतना के स्वर
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WeStory > सफलता की कहानी > Voices of women’s in Hindi literature: हिंदी साहित्य में महिला चेतना के स्वर
सफलता की कहानी

Voices of women’s in Hindi literature: हिंदी साहित्य में महिला चेतना के स्वर

WeStory Editorial Team
Last updated: 2024/03/30 at 4:58 PM
WeStory Editorial Team
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13 Min Read
Voices of women's in Hindi literature
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Voices of women’s in Hindi literature: पारम्परिक छवि को तोड़कर नए रूप में प्रस्तुत किया

आजादी की लड़ाई के दौरान ज्यादातर साहित्य में देशप्रेम के भावना दिखती थी। उषा देवी मित्रा, सरोजिनी नायडू, महादेवी वर्मा, सुभद्रा कुमारी चौहान आदि ने अपने समकालीन विषयों को अभिव्यक्ति दी। आजादी के बाद परिस्थितियां बदलने के साथ ही साहित्य और लेखन में महिलाओं के स्वर और विषयों में भी बदलाव दिखने लगा। नारी मुक्ति की भावना और अभिव्यक्ति ज्यादा मुखर रूप से उभर कर सामने आयी। महिलाओं का अपनी पारम्परिक छवि को तोड़कर एक नए रूप में दिखना पुरुषों के लिए अचम्भे से कम नहीं था। मन्नू भंडारी, उषा प्रियंवदा, चन्द्रकिरण सौनरिक्सा आदि का लेखन इसका उदाहरण है। नए परिवेश में पुरुष के साथ बराबरी से कन्धा मिलाकर चलने, पारिवारिक और सामाजिक मूल्यों में बदलाव के साथ साथ वैयक्तिक चेतना ने महिला साहित्य में एक नए स्वर को जन्म दिया। अमृता प्रीतम, शिवानी, कृष्णा सोबती, निरुपमा सेवती, मेहरुन्निसा परवेज़ आदि के लेखन ने नारी मूल्यों को नए सिरे से गढ़ा और एक नयी पहचान दी।

Table of Contents
Voices of women’s in Hindi literature: पारम्परिक छवि को तोड़कर नए रूप में प्रस्तुत कियाभक्तिकाल की गुमनाम कवयत्रियांकाव्य जगत की ‘आधुनिक मीरा’ महादेवीभारत विभाजन का गुस्सा कविता में उतारने वाली अमृता प्रीतममहाश्वेता देवी : विलक्षण लेखिका
Voices of women's in Hindi literature
Voices of women’s in Hindi literature

भक्तिकाल की गुमनाम कवयत्रियां

हिन्दी साहित्य के इतिहास के वर्गीकरण में भक्तिकाल का द्वितीय स्थान है। भक्तिकाल में कई कवयत्रियों का उल्लेख देखने को भी मिलता है। जैसे कि गंगा, गौरी, सीता, सुमति, शोभा, प्रभुता, उमा, कुंवरि, उबीठा, गोपाली, गणेश देवरानी, कला, लखा, कृतगढ़ी, मानुमती, सुचि, सतभामा, जमुना, कोली, रामा, मृगा, देवा, देभक्तन, विश्रामा, जुग जेवा कीकी, कमला, देवकी, हीरा, झाली आदि कवित्रियों ने कविताएं लिखी थीं परन्तु इनकी कविताएं कहां गयी ये कोई नहीं जानता। भक्ति काल की समस्त कवियित्रियां स्त्री काया जनित वेदना और विद्रोह को अभिव्यक्त करती हैं चाहे वो मीरा हो या लल्लेश्वरी भक्ति में भिगोई इनकी दमनकारी व्यवस्था के प्रति आक्रोश को सहज ही पहचाना जा सकता है।

इनमें से कुछ कवयित्रियों की जानकारी है और कुछ कवयत्रियां मठवाद हो गयी। उनके बारे में या उनकी लिखी कविताओं के बारे में कही भी देखने को नहीं मिलता है। जहां मीरा के लिखे पद थे तो उन्हें शायद इसलिए भी मिट्टी में दबाना संभव नहीं था क्योंकि उनके पद राजस्थान व अन्य नीची जातियों के घर-घर में गाये जाते थे। और यही हाल लल्लेश्वरी का भी था। वह कश्मीर से थी और घर-घर मे उनकी कविताएँ गाई जाती थी। जिन कविताओं का उल्लेख हमे देखने को नहीं मिला। कबीर के काल में लोई भी कविताएं लिखा करती थीं परन्तु कहां हैं लोई की रचनाएं किसी को नहीं पता। तुलसीदास के साथ रत्नावली भी कवि थीं, पर हिन्दी साहित्य के अभी तक के इतिहास में उनके अस्तित्व को नहीं दर्ज किया गया है।

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काव्य जगत की ‘आधुनिक मीरा’ महादेवी

महादेवी वर्मा का जन्म 26 मार्च 1907 को हुआ था। 80 साल के जीवनकाल में उन्होंने महान कवियित्री, प्राचार्य, उप-कुलाधिपति तथा स्वतंत्रता सेनानी जैसे अनेक प्रकार के रुप में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। हिन्दी की सर्वाधिक प्रतिभावान कवयित्रियों में से हैं। उन्हें आधुनिक मीरा भी कहा गया है। वह हिंदी साहित्य में 1914 से 1938 तक छायावादी युग के चार प्रमुख स्तंभों में से एक मानी जाती है। आधुनिक हिंदी की सबसे सशक्त कवियित्रियो में से एक होने के कारण उन्हें “आधुनिक मीराबाई” के नाम से भी जाना जाता है। वह प्रयाग महिला विद्यापीठ की प्राचार्य और फिर उप-कुलाधिपति रह चुकी है, जो अहमदाबाद में महिलाओ का निवासी महाविद्यालय है।

उनके जीवन भर की उपलब्धियों जैसे साहित्य अकादमी अनुदान 1979 में, उन्हें 1956 में पदम् भूषण और 1988 में पदम् विभूषण से सम्मानित किया गया, जो भारत का तीसरा और नागरिकत्व का दूसरा सबसे बड़ा सम्मान है। वो पहली महिला हैं जिन्हें 1979 में साहित्य अकादमी अनुदान का पुरस्कार दिया गया। “मेरे बचपन के दिन” कविता में उन्होंने लिखा है कि जब बेटियां बोझ मानी जाती थीं, उनका सौभाग्य था कि उनका एक आज़ाद ख्याल परिवार में जन्म हुआ। उनके दादाजी उन्हें विदुषी बनाना चाहते थे। उनकी माँ संस्कृत और हिन्दी की ज्ञाता थीं और धार्मिक प्रवृत्ति की थीं| माँ ने ही महादेवी को कविता लिखने, और साहित्य में रुचि लेने के लिए प्रेरित किया।

महादेवी वर्मा ने 1932 में प्रयाग विश्वविद्यालय से संस्कृत में एम.ए किया और तब तक उनकी दो कविता संग्रह नीहार तथा रश्मि प्रकाशित हो चुकी थीं। वे प्रयाग महिला विद्यापीठ की प्रधानाचार्य बनीं। विवाह के बाद भी वे क्रास्थवेट कॉलेज इलाहाबाद के छात्रावास में रहीं। उनका जीवन तो एक सन्यासिनी का जीवन था। उन्होंने जीवन भर श्वेत वस्त्र पहना, तख्त पर सोईं और कभी शीशा नहीं देखा। उनका सबसे क्रांतिकारी कदम था महिला-शिक्षा को बढ़ावा देना और इलाहाबाद में प्रयाग महिला विद्यापीठ के विकास में महत्वपूर्ण योगदान। उन्होंने महिलाओं की प्रमुख पत्रिका ‘चाँद’ का कार्यभार 1932 में संभाला। 1930 में नीहार, 1932 में रश्मि, 1934 में नीरजा, तथा 1936 में सांध्यगीत नामक उनके चार कविता संग्रह प्रकाशित हुए।

उन्होंने नए आयाम गद्य, काव्य, शिक्षा और चित्रकला सभी क्षेत्रों में स्थापित किये। इसके अलावा उनकी 18 काव्य और गद्य कृतियां हैं जिनमें प्रमुख हैं: मेरा परिवार, स्मृति की रेखाएं, पथ के साथी, शृंखला की कड़ियां और अतीत के चलचित्र। महादेवी बौद्ध धर्म से काफी प्रभावित थीं। उन्होंने महिलाओं की शिक्षा और उनकी आर्थिक निर्भरता के लिए बहुत काम किया है। उन्होंने जो 25 किलोमीटर दूर रामगढ़ कसबे के उमागढ़ नामक गांव में अपना बंगला बनवाया था वह अब महादेवी साहित्य संग्रहालय के नाम से जाना जाता है। उन्हें समाज सुधारक भी कहा जाता है क्योंकि जिस तरह से उन्होंने महिलाओं के अधिकारों और जनसेवा के लिए काम किया है वह सराहनीय पूर्ण है। इलाहाबाद में 11 सितंबर 1987 को उनका देहांत हो गया था।

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Voices of women's in Hindi literature
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भारत विभाजन का गुस्सा कविता में उतारने वाली अमृता प्रीतम

अमृता प्रीतम पंजाबी के सबसे लोकप्रिय लेखकों में से एक थी। पंजाब (भारत) के गुजराँवाला जिले में पैदा हुईं अमृता प्रीतम को पंजाबी भाषा की पहली कवयित्री माना जाता है। उन्होंने कुल मिलाकर लगभग 100 पुस्तकें लिखी हैं जिनमें उनकी चर्चित आत्मकथा ‘रसीदी टिकट’ भी शामिल है। उनकी कृतियों का अनुवाद विश्व की 34 भाषाओं में हुआ है। वह अपनी एक प्रसिद्ध कविता, “आज आखां वारिस शाह नु” के लिए काफी प्रसिद्ध हैं। यह कविता उन्होंने 18वीं शताब्दी में लिखी थीं और इस कविता में उन्होंने भारत विभाजन के समय में अपने गुस्से को कविता के माध्यम से प्रस्तुत किया था।

अमृता उन साहित्यकारों में थीं जिनकी कृतियों का अनेक भाषाओं में अनुवाद हुआ। अपने अंतिम दिनों में अमृता प्रीतम को भारत का दूसरा सबसे बड़ा सम्मान पद्मविभूषण भी प्राप्त हुआ। उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार से पहले भी अलंकृत किया जा चुका था। उनका जन्म 1919 में गुजरांवाला पंजाब (भारत) में हुआ। बचपन बीता लाहौर में, शिक्षा भी वहीं हुई। अमृता को भारत – पाकिस्तान की बॉर्डर पर दोनों ही तरफ से प्यार मिला। अपने 6 दशकों के करिअर में उन्होंने कविताओ की 100 से ज्यादा किताबें, जीवनी, निबंध और पंजाबी फोक गीत और आत्मकथाए भी लिखी। उनके लेखों और उनकी कविताओं को बहुत सी भारतीय और विदेशी भाषाओं में भाषांतरित किया गया है।

एक नॉवेलिस्ट होने के तौर पर उनका सराहनीय काम पिंजर (1950) में हमें दिखायी देता है। इस नॉवेल पर एक 2003 में एक अवार्ड विनिंग फिल्म पिंजर भी बनायी गयी थी। जब प्राचीन ब्रिटिश भारत का विभाजन 1947 में आज़ाद भारत राज्य के रूप में किया गया तब विभाजन के बाद वे भारत के लाहौर में आयी। लेकिन इसका असर उनकी प्रसिद्धि पर नहीं पड़ा, विभाजन के बाद भी पाकिस्तानी लोग उनकी कविताओं को उतना ही पसंद करते थे जितना विभाजन के पहले करते थे। अमृता को कई राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कारों से भी सम्मानित किया गया, जिनमें प्रमुख हैं 1956 में साहित्य अकादमी पुरस्कार, 1958 में पंजाब सरकार के भाषा विभाग द्वारा पुरस्कार, 1988 में बल्गारिया वैरोव पुरस्कार; (अन्तर्राष्ट्रीय) और 1982 में भारत के सर्वोच्च साहित्यिक पुरस्कार ज्ञानपीठ पुरस्कार। वे पहली महिला थीं जिन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला और साथ ही साथ वे पहली पंजाबी महिला थीं जिन्हें 1969 में पद्मश्री सम्मान से सम्मानित किया गया।

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महाश्वेता देवी : विलक्षण लेखिका

1996 में ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित बांग्ला साहित्यकार एवं सामाजिक कार्यकर्ता महाश्वेता देवी अपने सच्चे और प्रभावी लेखन के लिए जानी जाती रही। महाश्वेता देवी का जन्म 14 जनवरी 1926 को अविभाजित भारत के ढाका में हुआ था। उनके पिता मनीष घटक कवि और उपन्यासकार थे। माता धारीत्री देवी भी एक लेखिका और सामाजिक कार्यकर्ता थीं। 1956 में प्रकाशित ‘झांसी की रानी’ महाश्वेता देवी की प्रथम रचना है। स्वयं उन्हीं के शब्दों में, “इसको लिखने के बाद मैं समझ पाई कि मैं एक कथाकार बनूंगी। ” इस पुस्तक को महाश्वेता ने कलकत्ता में बैठकर नहीं बल्कि सागर, जबलपुर, पूना, इंदौर, ललितपुर के जंगलों, झांसी ग्वालियर, कालपी में घटित तमाम घटनाओं यानी 1857-58 में इतिहास के मंच पर जो हुआ उस सबके साथ-साथ चलते हुए लिखा।

महाश्वेता देवी ने एक बार कहा था ‘पहले मेरी मूल विधा कविता थी, अब कहानी और उपन्यास है। ‘उनकी कुछ महत्वपूर्ण कृतियों में ‘अग्निगर्भ’ ‘जंगल के दावेदार’ और ‘1084 की मां’, माहेश्वर, ग्राम बांग्ला हैं। उनकी कहानियों के बीस से अधिक संग्रह प्रकाशित किए जा चुके हैं। उनके उपन्यासों में मानवीय संघर्ष का चित्रण इतना जीवंत मिलता है कि पढ़ते हुए पाठक नीरव खामोशी ओढ़ लेता है। वे इस बात की घोर विरोधी रही कि कमरे में बैठकर कोरे आंसू बहाए जाए। उनकी नायिका प्रखर और मुखर मिलती है उनकी ही तरह। विचारों की स्पष्टता और भावों की सरलता एक साथ उनके लेखन में नजर आती रही। उनकी स्कूली शिक्षा ढाका में हुई।

भारत विभाजन के समय परिवार पश्चिम बंगाल में आकर बस गया। बाद में विश्वभारती विश्वविद्यालय, शांतिनिकेतन से बी,ए (Hons) अंग्रेजी में किया और फिर कोलकाता विश्वविद्यालय में एम.ए अंग्रेजी में किया। कोलकाता विश्वविद्यालय से अंग्रेजी साहित्य में मास्टर की डिग्री प्राप्त करने के बाद एक शिक्षक और पत्रकार के रूप में अपना जीवन शुरू किया। कलकत्ता विश्वविद्यालय में अंग्रेजी व्याख्याता के रूप में नौकरी भी की। 1984 में अपना सारा जीवन लेखन को समर्पित कर दिया और स्वैच्छा से सेवानिवृत्ति ले ली। महाश्वेता ने कम उम्र में लेखन का शुरू किया और विभिन्न साहित्यिक पत्रिकाओं के लिए लघु कथाएं लिखकर महत्वपूर्ण योगदान दिया।

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