Virtual World Effect : वर्चुअल दुनिया में वॉयलेंस का हो रहा दिमाग पर असर
Virtual World Effect – टीनएज बच्चे सोशल मीडिया और इंटरनेट को असली दुनिया मान बैठे हैं। कुछ बच्चे साइबर बुलिंग के शिकार हो रहे हैं, अपने लुक्स को लेकर इनसिक्योर हो रहे हैं और पॉपुलैरिटी न मिलने से परेशान हैं। अब बात सिर्फ सोशल मीडिया या इंटरनेट के नैतिक-अनैतिक प्रभाव तक सीमित नहीं है। विज्ञान कह रहा है कि दिमाग पर हमारे आसपास हो रही हर छोटी चीज का प्रभाव पड़ता है।
अगर हमारे सोशल मीडिया, स्क्रीन या किसी भी तरह की वर्चुअल दुनिया में वॉयलेंस दिख रहा है तो इससे हमारे वॉयलेंट होने के चांस बढ़ जाते हैं। इसका सबसे अधिक प्रभाव बच्चों पर होता है क्योंकि उनका दिमाग इस कंटेंट को प्रोसेस करने के लिए तैयार ही नहीं है। इसके अलावा उन्हें बचपन में जो माहौल मिलता है, उसका सीधा असर उनके व्यवहार पर पड़ता है।

मस्तिष्क का जन्म से लेकर वयस्क होने तक विकास
हमारा मस्तिष्क जन्म से लेकर वयस्क होने तक लगातार विकसित होता रहता है। हर उम्र में मस्तिष्क अलग-अलग स्किल्स और क्षमताओं को विकसित करता है। इस दौरान हमारे आसपास जो कुछ भी होता है, दिखता है और सुनाई देता है। उसका मस्तिष्क के विकास पर सीधा असर होता है। 0-1 साल तक मस्तिष्क का 60% विकास होता है देखने, सुनने, महसूस करने और प्रतिक्रिया देने की क्षमता विकसित होती है।
बच्चा अपने माता-पिता की आवाज पहचानने लगता है। बेसिक इमोशन जैसे- रोना, हंसना, घबराहट, खुशी विकसित होती है। बाहरी दुनिया से जुड़ने के लिए नर्व कनेक्शन यानी न्यूरॉन सर्किट बनते हैं। वहीं 1-3 साल तक मस्तिष्क लगभग 80% तक विकसित हो जाता है, शब्दों को समझने और बोलने की क्षमता विकसित होती है। अपना वजूद समझने लगता है और खुद को पहचानने लगता है। माता-पिता और आसपास के लोगों से भावनात्मक जुड़ाव विकसित होता है। वहीं 6-12 साल तक मस्तिष्क का आकार 95% तक विकसित हो चुका होता है, ध्यान केंद्रित करने और समस्याओं को हल करने की क्षमता बढ़ती है।
नियम और सामाजिक जिम्मेदारियां समझने लगता है। 12-18 साल में प्रीफ्रंटल कॉर्टेक्स यानी मस्तिष्क का निर्णय लेने वाला भाग विकसित होने लगता है, खुद के विचारों और भावनाओं को समझने लगता है। आत्मनिर्भर बनने की इच्छा बढ़ती है। जोखिम लेने की प्रवृत्ति बढ़ती है, लेकिन तर्कपूर्ण निर्णय लेने की क्षमता पूरी तरह विकसित नहीं होती है।
Read More: Digital Arrest Scam: ‘डिजिटल अरेस्ट’ स्कैम से घबराएं नहीं, साइबर सेल में शिकायत करें

लोगों की नींद पूरी नहीं हो रही
मस्तिष्क में हर उम्र में नई क्षमताएं विकसित होती हैं। इनका स्वरूप जैसा रहेगा, उससे बच्चे का भविष्य तय होता है। इसलिए इस दौरान पेरेंट्स और शिक्षकों की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण होती है। सही देखभाल, न्यूट्रिशन और सीखने के सही अवसर मिलने पर बच्चे की बौद्धिक और भावनात्मक क्षमता ज्यादा बेहतर तरीके से विकसित हो सकती है। अगर चीजें सकारात्मक नहीं रहीं तो परिणाम विपरीत भी हो सकते हैं।
नेशनल लाइब्रेरी ऑफ मेडिसिन की एक स्टडी बताती है कि सोशल मीडिया पर ज्यादा समय बिताने से लोगों की नींद पूरी नहीं हो रही है। इसकी वजह से मानसिक स्वास्थ्य प्रभावित हो रहा है। लगातार स्क्रीन पर समय बिताने से याददाश्त कमजोर हो रही है और लोग एंग्जाइटी व डिप्रेशन जैसी समस्याओं के शिकार हो रहे हैं।

याददाश्त, भाषा सीखने की क्षमता पर असर
अटेंशन स्पैन यानी बिना भटके किसी काम पर ध्यान लगाने की क्षमता तेजी से घट रही है। यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया, इरविन की रिसर्च के अनुसार, पिछले 20 सालों में इंसानों का औसत अटेंशन स्पैन 2.5 मिनट से घटकर सिर्फ 47 सेकेंड रह गया है। इसका मुख्य कारण सोशल मीडिया की लत को माना जा रहा है। सोशल मीडिया का अधिक इस्तेमाल करने से याददाश्त, भाषा सीखने की क्षमता और दिमागी विकास पर नकारात्मक असर पड़ता है।
इससे खासतौर पर बच्चों में लंबे समय तक ध्यान केंद्रित करने में कठिनाई होती है। उनके लिए किसी भी क्रिएटिव कार्य को पूरा करना मुश्किल हो जाता है, क्योंकि यह प्रक्रिया लंबे समय तक फोकस बनाए रखने की मांग करती है। सोशल मीडिया का ज्यादा इस्तेमाल बच्चों और किशोरों की भावनात्मक सेहत को नुकसान पहुंचा रहा है। ऑनलाइन कम्पेरिजन, लाइक्स-कमेंट्स की चिंता और साइबर बुलिंग जैसी समस्याएं उनका आत्मविश्वास कमजोर कर रही हैं। इससे उनमें अकेलापन, चिड़चिड़ापन और एंग्जाइटी बढ़ रहा है, जो मानसिक और भावनात्मक विकास के लिए हानिकारक हो सकता है।
बच्चों द्वारा सोशल मीडिया और इंटरनेट पर लगातार अश्लील कंटेंट देखने से उनके व्यवहार और मानसिक विकास पर नकारात्मक असर पड़ता है। उन्हें अपना विपरीत जेंडर सिर्फ सेक्सुअल ऑब्जेक्ट की तरह दिखने लगता है। यह खतरनाक है। ‘रिसर्चगेट’ पर मार्च, 2024 में पब्लिश एक स्टडी के मुताबिक, ज्यादा हिंसक कंटेंट देखने से स्वभाव में आक्रामकता बढ़ती है और सहानुभूति घटती है। लगातार वॉयलेंट कंटेंट कंज्यूम करने से बच्चों की सोचने-समझने की क्षमता भी प्रभावित हो रही है, उन्हें हर चीज का सॉल्यूशन वॉयलेंस ही समझ आता है।