Dearness Increase – पिछले वर्ष की तुलना में 2.4% की बढ़ोतरी होने का अनुमान
Dearness Increase: अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की तरफ से व्यापक टैरिफ लागू किए जाने के कारण पिछले महीने महंगाई में थोड़ी बढ़ोतरी हुई है, अर्थशास्त्रियों को उम्मीद है कि आने वाले महीनों में यह प्रवृत्ति और अधिक स्पष्ट होगी। फैक्टसेट के अनुसार अप्रैल में उपभोक्ता कीमतों में पिछले वर्ष की तुलना में 2.4% की बढ़ोतरी होने का अनुमान है, जो मार्च में भी समान है और वर्ष की शुरुआत में 3% से कम है। फिर भी मासिक आधार पर, अर्थशास्त्रियों को उम्मीद है कि मार्च से अप्रैल तक उपभोक्ता मूल्य सूचकांक में 0.3% की बढ़ोतरी हुई है, यह एक ऐसी गति है जो मुद्रास्फीति को और खराब कर देगी, क्योंकि पिछले महीने लगभग पांच वर्षों में पहली बार इसमें गिरावट आई थी।
किन वस्तुओं के दाम बढ़े
रिपोर्ट में बताया गया है कि कपड़े, जूते, फर्नीचर, खाने-पीने का सामान, और कारों के दाम बढ़े हैं। इसकी वजह यह है कि फरवरी से मैक्सिको और कनाडा से आने वाले कई सामानों पर टैरिफ लग चुके हैं और अब चीन से भी बहुत सारे उत्पादों पर टैक्स लगाया गया है। उदाहरण के तौर पर कार खरीदने की होड़ इसलिए बढ़ी क्योंकि लोग टैरिफ लागू होने से पहले कार खरीद लेना चाहते थे। इससे कार की बिक्री बढ़ी और डीलरों को छूट देने की जरूरत नहीं पड़ी, जिससे कीमतें बढ़ीं।
‘किराना और ग्रॉसरी’ की चीजों के दाम भी बीते तीन महीनों में दो बार तेजी से बढ़े हैं। कई कंपनियों ने कहा है कि वे अभी यह तय नहीं कर पा रही हैं कि टैरिफ के कारण बढ़ी लागत को उपभोक्ताओं पर कितना डाला जाए। यानी वे धीरे-धीरे कीमतें बढ़ा रही हैं ताकि मांग पर असर न पड़े। लॉरा रोस्नर-वारबर्टन, जो मैक्रो पॉलिसी पर्सपेक्टिव्स की सह-संस्थापक हैं, कहती हैं कि कंपनियां धीरे-धीरे कीमतें बढ़ा रही हैं ताकि ग्राहक चौंके नहीं।
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चीन और अमेरिका के बीच समझौता
ट्रंप प्रशासन ने सोमवार को कहा कि चीन के साथ एक समझौता हुआ है, जिसमें चीन पर लगाए गए 145% के टैरिफ को घटाकर 30% कर दिया गया है। चीन ने भी अमेरिकी सामान पर लगाई गई ड्यूटी घटा दी है। लेकिन यदि 90 दिनों में दोनों देश कोई ठोस समझौता नहीं कर पाए, तो फिर से 24% तक के नए टैरिफ जुड़ सकते हैं। हालांकि, इसके बावजूद भी अमेरिकी टैरिफ औसतन 18% तक रहेंगे, जो कि 1934 के बाद सबसे ज्यादा हैं।

फेडरल रिजर्व की मुश्किलें
महंगाई और बेरोजगारी दोनों एक साथ बढ़ रहे हैं, जिससे अमेरिकी केंद्रीय बैंक मुश्किल में है। आम तौर पर जब बेरोजगारी बढ़ती है, तो फेडरल रिजर्व ब्याज दरें घटाता है ताकि लोग ज्यादा खर्च करें और नौकरियां बढ़ें। लेकिन जब महंगाई बढ़ती है, तो ब्याज दरें बढ़ाई जाती हैं।
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क्या है राष्ट्रपति ट्रंप का नजरिया
राष्ट्रपति ट्रंप बार-बार यह दावा कर रहे हैं कि ‘कोई महंगाई नहीं है। उन्होंने सोशल मीडिया पर भी कहा कि पेट्रोल की कीमत 1।98 डालर प्रति गैलन है। लेकिन एएए संस्था का कहना है कि पेट्रोल की औसत कीमत 3।14 डालर प्रति गैलन है, यानी ट्रंप का दावा सही नहीं है। ट्रंप का मानना है कि टैरिफ से सरकार की आमदनी बढ़ेगी और इससे बजट घाटा कम होगा। उन्होंने यहां तक कहा है कि टैरिफ सबसे खूबसूरत शब्द है, यानी उन्हें टैरिफ बहुत पसंद है।

चाइनीज माल की एंट्री रोकने की चुनौती
भारत और ब्रिटेन के बीच मुक्त व्यापार समझौता हो चुका है। अब दोनों देशों के सामने चुनौती है कि वे चाइनीज माल की एंट्री को कैसे रोकें। इसके लिए दोनों देश अपने उत्पादों में घरेलू कंटेंट को बढ़ाने पर फोकस कर रहे हैं ताकि चीनी माल की पिछले दरवाजे से एंट्री को रोका जा सके। केनरा बैंक की रिपोर्ट में यह बात कही गई है। रिपोर्ट में कहा गया है कि माल का उत्पादन कहां हो रहा है, इसे पता लगाने के लिए सख्त कदम उठाए जाने चाहिए।
रिपोर्ट में कहा गया है कि ब्रिटेन के साथ मुक्त व्यापार समझौता होना, भारत की बड़ी जीत है। इसके तहत ब्रिटेन के 99 प्रतिशत बाजार में भारतीय उत्पादों को ड्यूटी फ्री एंट्री मिलेगी। इससे भारतीय निर्यातकों को काफी फायदा होगा। केनरा बैंक की रिपोर्ट के अनुसार अगर माल के उत्पादन वाली जगह की पुष्टि के लिए सख्त कदम नहीं उठाए गए तो चाइनीज माल की पिछले दरवाजे से दोनों देशों के बाजार में एंट्री हो सकती है और दोनों देशों के स्थानीय निर्यातकों को एफटीए का पूरा फायदा नहीं मिल पाएगा।
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वित्तीय फर्म्स के लिए खुला बाजार
भारत ब्रिटेन व्यापार समझौते में कृषि और डेयरी उत्पादों को समझौते से बाहर रखा गया है। भारत की अभी यूरोपीय संघ और ऑस्ट्रेलिया के साथ भी मुक्त व्यापार समझौते पर बात हो रही है। भारत को इनके साथ होने वाले मुक्त व्यापार समझौते में डेयरी और कृषि उत्पादों को समझौते से बाहर रखने में खासी मशक्कत करनी पड़ रही है। एफटीए के तहत भारत और ब्रिटेन एक दूसरे देश के बैंकिंग और इंश्योरेंस सेक्टर को समान सुविधाएं देंगे। ऐसे में ब्रिटेन की वित्तीय फर्म्स भारत में विस्तार कर सकती हैं। वहीं भारतीय वित्तीय फर्म्स भी ब्रिटेन के बाजार में दाखिल हो सकती हैं।