Indian Economy – ग्रामीण क्षेत्र में महिलाएं रोजगार से वंचित
Indian Economy: भारत में 23 करोड़ से ज्यादा लोग स्वरोजगार से अपनी जीविका कमाते हैं और इनमें 1 करोड़ से ज्यादा ऐसे लोग हैं जो कम से कम 2 अन्य लोगों को नौकरियां भी दे रहे हैं। चिंतनीय यह कि इन स्वरोजगार करने वालों में महिलाओं की भागीदारी 6 से 7 फीसदी तक ही है। यह बहुत बड़ा गैप है। अगर भारत को गंभीरता से तयसीमा के भीतर विकसित देश बनना है तो आधी दुनिया के श्रमबल को और उनके विभिन्न कौशलों को बेहतर ढंग से इस्तेमाल में लाना होगा।
भारत के ग्रामीण क्षेत्र में महिलाएं न सिर्फ बड़े पैमाने पर रोजगार से वंचित हैं बल्कि वे न्यूनतम क्रयशक्ति से भी वंचित हैं। अगर महिलाओं के हाथ में क्रयशक्ति मौजूदा 23 से 24 फीसदी की जगह 35 से 40 फीसदी हो जाए तो सभी क्षेत्रों में मांग वर्तमान के मुकाबले 10 से 20 फीसदी तक बढ़ जायेगी और रोजगार क्षेत्र से निर्मित होने वाली तरल पूंजी वर्तमान के मुकाबले 3 से 4 खरब रुपये बढ़ जायेगी। इससे न सिर्फ व्यापार का तेज विकास होगा बल्कि हमारे पारंपरिक जीवनस्तर में भी सुधार होगा। तब सही मायनों में भारत विकसित देश बन सकेगा।

लक्ष्य कठिन है
बिना महिलाओं के अर्थव्यवस्था में उचित भागीदारी के यह लक्ष्य न सिर्फ कठिन है बल्कि वास्तविक परिवर्तन का सूचक भी नहीं है। इसलिए बिना देर किए आधी दुनिया को अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण भागीदारी देना सुनिश्चित करना होगा। अगर भारत को 2047 तक दुनिया के विकसित देशों की कतार में शामिल होना है तो उसकी अर्थव्यवस्था में वर्तमान में महिलाओं की जो अधिकतम 20 फीसदी भागीदारी है उसे बढ़ाकर 50 फीसदी करना होगा। यह कहना है अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष का। यद्यपि इस विचार से अकेले अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष ही सहमत नहीं है बल्कि दुनिया के सभी महत्वपूर्ण आर्थिक संगठन और आर्थिक फोरम भी यही कहते हैं। सबका एक स्वर में मानना है कि अगर भारत में महिलाओं को अर्थव्यवस्था में पुरुषों के बराबर भागीदारी दे दी जाए तो चमत्कार हो सकता है।
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27 फीसदी एक झटके में बढ़ जायेगी आय
आईएमएफ के मुताबिक ऐसी स्थिति में भारत की आय 27 फीसदी एक झटके में बढ़ जायेगी। यही नहीं, हिंदुस्तान को यूरोपीय संघ की तुलना में कहीं अधिक अतिरिक्त कर्मचारी मिल सकेंगे जो भारत को न सिर्फ रातोंरात आर्थिक ताकत बनाने में अहम भूमिका निभाएंगे बल्कि बहुत जल्द ही भारत से गरीबी भाग जायेगी। दावोस 2023 में पेश 26वें वार्षिक वैश्विक सीईओ सर्वेक्षण से पता चलता है कि दुनिया में आर्थिक मंदी के दौर में भी भारत चाहे तो अपनी अर्थव्यवस्था को तेज रफ्तार दे सकता है बशर्ते महिलाओं की वर्कफोर्स में भागीदारी बढ़ायी जाए। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने घोषणा की है कि हिंदुस्तान 2047 तक विकसित देश का दर्जा हासिल कर लेगा जबकि विश्व के अनेक संगठन यह मानते हैं कि भारत इससे पहले ही बड़ी आर्थिक शक्ति में तब्दील हो सकता है।

यूपीआई में भागीदारी पुरुषों से बस 10 फीसदी कम
आखिर भारत में डिजिटल लेन-देन विश्वसनीय रूप से बहुत तेजी से आगे बढ़ा है और यह ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि इसमें महिलाओं की 40 फीसदी तक भागीदारी है। अब के पहले के अनेक ‘मोड ऑफ पेमेंट’ में महिलाओं की भागीदारी सिर्फ 10 से 15 फीसदी हुआ करती थी लेकिन यूपीआई में महिलाओं की भागीदारी पुरुषों से बस 10 फीसदी ही कम है। इसका नतीजा यह है कि पूरी दुनिया भारत के डिजिटल लेन-देन को चमत्कार की तरह देख रही है।
साल 2022 में इसलिए भारत का डिजिटल रुपया समय से बहुत पहले आ गया क्योंकि डिजिटल लेन-देन में महिलाओं की जबरदस्त भूमिका रही। हालांकि यूपीआई एक अपवाद क्षेत्र है। बाकी ज्यादातर क्षेत्रों में महिलाओं की बहुत ही दयनीय स्थिति है। वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम ने हाल ही में साल 2022 के लिए अपना ग्लोबल जेंडर गैप इंडेक्स जारी किया था जिससे पता चला कि भारत 146 देशों में से महिलाओं की विभिन्न अवसरों में भागीदारी के मामले में 143वें स्थान पर था।

वैसी छूट नहीं है जैसी पुरुषों को
हालांकि हाल के सालों में इसमें कुछ वृद्धि देखने को मिली है लेकिन विश्व स्तर पर देखें तो यह कुछ खास नहीं है। केवल ईरान, पाकिस्तान और अफगानिस्तान से ही हम इस मामले में थोड़ा ऊपर हैं। भारत के शहरों में 71.7 फीसदी से ज्यादा पुरुष स्नातकों को रोजगार हासिल है जबकि महिलाओं के मामले में यह हिस्सेदारी सिर्फ 23.6 फीसदी ही है। भारतीय अर्थव्यवस्था सदियों से पुरुष प्रधान रही है और इसे पूरी तरह से महिलाओं के लिए खुलने में बहुत देर हो रही है।
दरअसल, किसी भी अर्थव्यवस्था में जब पुरुषों का वर्चस्व होता है तो बिना कहे ही इसका मतलब महिलाओं का पिछड़ा होना होता है। नारीवादी लेखिका अमिया श्रीनिवासन इसे पुरुषों की स्वतंत्रता की अनकही शर्त और महिलाओं की गुलामी के रूप में चिन्हित करती हैं। महिलाओं को भारत में बहुत से कामों को करने की वैसी ही छूट नहीं है जैसी पुरुषों को है। जब इस विषय पर बहस होती है तो भी पुरुषों के ही पक्ष में खड़े होते हैं।

17 फीसदी नियमित और स्थिर वेतनभोगी कर्मचारी
भारत में सिर्फ 17 फीसदी महिलाएं और नियमित और स्थिर वेतनभोगी कर्मचारी हैं वरना महिलाएं जिस तरह का काम करती हैं उसमें उन्हें तोड़ तोड़कर वेतन मिलता है। यही नहीं, महिलाओं को अधिकांश कामों के लिए पुरुषों के मुकाबले 20 से 45 फीसदी तक कम भुगतान किया जाता है। कार्यस्थलों पर महिलाएं जिस तरह से पुरुषों के वर्चस्व का शिकार होती हैं, उसमें एक बड़ा हिस्सा उनकी असुरक्षा से भी जुड़ा होता है मगर ज्यादातर क्षेत्रों में यही स्थिति है। सिर्फ आर्थिक ही नहीं सामाजिक और दूसरे क्षेत्रों में भी महिलाओं की अग्रिम भागीदारी नहीं है। अगर भारत को विकसित देश बनना है तो हमें खास तौर पर अपने कृषि, शिक्षा, रोजगार, सेवा क्षेत्र और स्टार्टअप जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों में महिलाओं की वर्तमान भागीदारी को 20 से 25 फीसदी तक बढ़ाना होगा।
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चाहकर भी नौकरी नहीं कर पा रहीं
स्वास्थ्य कौशल विकास में भी महिलाओं को बड़ी भूमिका देनी होगी तभी न सिर्फ तेजी से हमारा आर्थिक विकास होगा बल्कि विकसित देशों की कतार में हमारी सुनिश्चित मौजूदगी होगी। वैसे भी विभिन्न अर्थशास्त्रियों का आंकलन है कि अगर भारत को अगले 23 सालों में विकासशील से विकसित देश बनना है तो लगातार हमारी विकास दर 8 फीसदी से ऊपर लगभग 9 फीसदी रहनी होगी।
यह तभी संभव है जब श्रमबल में महिलाओं की भागीदारी वर्तमान की 17 से 30 फीसदी की जगह 42 से 45 फीसदी के बीच रहे। आज की तारीख में 3 करोड़ से ज्यादा पढ़ी-लिखी और लाखों महिलाएं किसी विशेष क्षेत्र में पारंगत होने के बावजूद या तो नौकरी से वंचित हैं या उनके घर परिवार का ऐसा ढ़ाचा है जिसके कारण वे चाहकर भी नौकरी नहीं कर पा रहीं। भारतीय उद्योग जगत को बेकार हो रही इस श्रमशक्ति का इस्तेमाल करना ही होगा।
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