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Reading: OTT Webseries: मध्यवर्ग को देखकर बनाई जाती हैं ओटीटी वेबसीरीज
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WeStory > मनोरंजन > OTT Webseries: मध्यवर्ग को देखकर बनाई जाती हैं ओटीटी वेबसीरीज
मनोरंजन

OTT Webseries: मध्यवर्ग को देखकर बनाई जाती हैं ओटीटी वेबसीरीज

OTT Webseries: ओटीटी में जितना गाली-गलौज और अश्लील कंटेंट होता है, वह तो कई बार सी ग्रेड की फिल्मों में भी नहीं होता।

WeStory Editorial Team
Last updated: 2024/06/26 at 3:00 PM
WeStory Editorial Team
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9 Min Read
OTT Webseries
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OTT Webseries: अकेले ही एंज्वॉय करने का मंच ओटीटी, आम पसंद नहीं है

OTT Webseries: ओटीटी में जितना गाली-गलौज और अश्लील कंटेंट होता है, वह तो कई बार सी ग्रेड की फिल्मों में भी नहीं होता। चूंकि OTT Webseries जिन विषयों को लेकर बनती हैं, वो विषय समसामयिक, बहुचर्चित और उन पर हिस्सेदारी के लिए भी आप में एक स्तर का होना जरूरी है। इसीलिए देखा गया है कि ज्यादातर ओटीटी वेबसीरीज उन विषयों पर बनती हैं जिन पर पढ़े लिख मध्यवर्ग की खूब रुचि होती है।

Table of Contents
OTT Webseries: अकेले ही एंज्वॉय करने का मंच ओटीटी, आम पसंद नहीं हैसोचने-विचारने वाली फिल्में पसंद नहीं आतींकम्प्लीट मनोरंजन की सुविधा नहीं देता ओटीटीएक दूसरे का पूर्ण विकल्प नहीं हैंसिंगल स्क्रीन वाले सस्ते विकल्प नहीं बचे

देखने वाली बात यह भी है कि ओटीटी प्लेटफॉर्म सिनेमाघरों की जगह इसलिए भी नहीं ले सकते क्योंकि सिनेमाघरों की तरह नियमित रूप से इस प्लेटफॉर्म पर फिल्म जैसे मनोरंजन की व्यवस्था नहीं होती। अगर आप देश दुनिया से कदम से कदम मिलाकर चल रहे हैं और तमाम विषयों पर अपनी एक राय रखते हैं और समाज में जो कुछ हो रहा है, वह आपको परेशान करता है तो यहां आपके मनोरंजन के साधन ज्यादा होते हैं लेकिन फिर वही बात कि इस स्तर का कंटेंट पचाने के लिए या इस स्तर के कंटेंट में रुचि लेने के लिए आप में एक खास तरह की पढ़ाई-लिखाई होनी चाहिए। एक खास श्रेणी का सामाजिक स्तर भी होना जरूरी है तभी आप ओटीटी के अनुकूल यूजर बन सकते हैं।

OTT Webseries
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सोचने-विचारने वाली फिल्में पसंद नहीं आतीं

कोरोनाकाल में जरूर OTT Webseries यूजर फेवरेट बन गया, लेकिन ध्यान रखिए कोरोनाकाल में भी यह मध्यवर्ग तक ही अपनी जबरदस्त जगह बना सका था क्योंकि मध्यवर्ग के पास इस मंच या इस स्तर के मनोरंजन को पचाने की न सिर्फ मानसिक क्षमता थी बल्कि उसी की रुचि के मुताबिक ही ये तमाम सीरीज बनायी गई होती हैं। आम आदमी सोचने-समझने के स्तर पर काफी हद तक या तो पैदल होता है या बहुत प्राथमिक स्तर पर होता है। इसलिए उसे बहुत सोचने-विचारने वाली फिल्में पसंद नहीं आतीं या जो समाज का आईना हो, ऐसी फिल्मों के लिए वह दीवाना नहीं होता।

आम आदमी को ऐसी फिल्में चाहिए जो उसकी तमाम तरह की परेशानियों के चलते पैदा हुए तनाव में कुछ देर के लिए राहत दे, कुछ घंटों के लिए उसे असली दुनिया की समस्याएं भूलने की वजह बने और यह सब करने के लिए उसे अपने दिमाग पर बहुत ज्यादा जोर भी न डालना पड़े। एक बात यह भी है कि ओटीटी एक ऐसा मंच है जिसे आप अकेले ही एंज्वॉय कर सकते हैं जबकि आम आदमी जब फिल्म देखता है तो वह उसकी अकेले से ज्यादा सामूहिक गतिविधि होती है। यार दोस्तों के साथ फिल्में देखने का मजा ही कुछ और है। इसलिए आमतौर पर जो लोग महीने की शुरुआत में वेतन मिलने के बाद अक्सर फिल्म देखने का प्रोग्राम बनाते हैं, उन लोगों के लिए ओटीटी का विकल्प सस्ता होने के बावजूद रास नहीं आता।

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OTT Webseries
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कम्प्लीट मनोरंजन की सुविधा नहीं देता ओटीटी

आम लोग जब वेतन मिलने के बाद आमतौर पर महीने की पहली और आखिरी फिल्म दिखने का प्रोग्राम बनाता है तो सिर्फ वह फिल्म नहीं देखता इस बहाने उसकी आउटिंग भी हो जाती है। इसी बहाने वह अपने बीवी बच्चों के साथ बाहर घूमने और खुश होने का छोटा सा मौका भी तलाश लेता है। बच्चे बाहर रेहड़ियों में चाऊमीन से लेकर तमाम मशहूर स्नैक्स खा लेते हैं जबकि मां-बाप पानी पूरी से काम चला लेते हैं।

इससे ज्यादा बजट हुआ तो सिनेमा देखने वाले दिन बाहर खाने का भी प्रोग्राम बन जाता है। असल बात यह कि जब कोई आम व्यक्ति थियेटर जाकर सिनेमा देखने का प्रोग्राम बनाता है तो वह सिर्फ एक फिल्म देखनाभर नहीं होता बल्कि कम से कम महीनेभर के लिए कम्प्लीट मनोरंजन का पैकेज होता है। यह सुविधा ओटीटी नहीं देता। एक और भी समस्या है।

OTT Webseries
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एक दूसरे का पूर्ण विकल्प नहीं हैं

आमतौर पर ओटीटी पर दिखायी जाने वाली वेब सीरीज एक साथ नहीं आतीं। वह अलग-अलग खंडों में टुकड़ों में आती हैं और कई बार एक खंड का टुकड़ा 8-8, 9-9 घंटे का होता है जबकि फिल्म 2-3 घंटे की होती है।7-8 घंटे तक किसी कहानी के साथ या किसी विषय के साथ बने रहना आम लोगों के बस में नहीं होता और उसमें भी जब 7-8 घंटे के टुकड़ों में भी बेव सीरीज खत्म नहीं होती बल्कि उसके अलग-अलग सीजन चलते हैं। ऐसी वेब सीरीज उन लोगों के लिए कतई काम की नहीं होतीं जो 2-3 घंटे का मनोरंजन करके उस विषय को भूल जाने के लिए फिल्म देखते हैं। कुल मिलाकर न-न करते हुए वेब सीरीज या ओटीटी का कंटेंट सोचने, समझने वाले लोगों को ध्यान में रखकर तैयार किया जाता है जबकि 2 से 3 घंटे के बीच की बहुसंख्यक फिल्में ऐसे विषयों पर बनायी जाती हैं जो देखने वाले को तभी तक इंगेज करती हैं जब उन्हें देखा जा रहा हो।

इसलिए सिनेमाघर और ओवर द टॉप प्लेटफॉर्म एक दूसरे का पूर्ण विकल्प नहीं हो सकते, पूरक जरूर हैं। हालांकि यह बहस अब कई साल पुरानी पड़ चुकी है लेकिन हाल में एक बार फिर से इस बहस ने सिर उठाया है क्योंकि इधर कई फिल्मों का बहुत बुरा हाल रहा है जिनके मुकाबले ओटीटी में हीरामंडी जैसी कुछ वेब सीरीज ने अच्छा बिजनेस किया है। सवाल यह है कि क्या ओटीटी सिनेमाघरों का वास्तव में विकल्प बन सकता है? निश्चित रूप से ऐसा होता तो नहीं लग रहा। भले सोचने में ओटीटी विकल्प बहुत सस्ता और ज्यादा लोकतांत्रिक लगे लेकिन इस सस्ते और लोकतांत्रिक विकल्प के लिए जो शुरुआती निवेश और पृष्ठभूमि चाहिए, वह हर आदमी के लिए संभव नहीं है। एक आम आदमी जब तक सिंगल स्क्रीन का विकल्प था तो छोटे शहरों में 20 से 50 रुपये में सिनेमा देखने का अपना शौक पूरा कर लेता था।

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OTT Webseries
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सिंगल स्क्रीन वाले सस्ते विकल्प नहीं बचे

अब हालांकि बड़े शहरों में खासकर महानगरों में सिंगल स्क्रीन वाले सस्ते विकल्प नहीं बचे। फिर भी ऑड समय के प्रदर्शन और इसी तरह के कई दूसरे विकल्प अभी तक हैं जिनके चलते कोई आम आदमी मल्टीस्क्रीन में भी 100 से 200 रुपये के बीच में फिल्म देख सकता है। हालांकि ओटीटी का विकल्प इस दूसरे विकल्प से भी कहीं सस्ता लगता है क्योंकि ज्यादातर प्रसारण कंपनियां 200 से 300 रुपये मासिक के विकल्प पर ओटीटी (ओवर द टॉप) मनोरंजन को देखने का मौका तो देती ही हैं।

सबसे पहले तो इस विकल्प का आनंद उठाने के लिए आपके पास एक आधुनिक एंड्राइड फोन होना चाहिए जो आज की तारीख में कम से कम 10 हजार रुपये का मिलता है। दूसरी बात यह कि ओटीटी महज सिनेमाघरों में दिखायी जाने वाली फिल्मों का विकल्प नहीं बल्कि एक ‘टेस्ट’ है। आप में ओटीटी देखने के लिए एक खास तरह के संस्कार चाहिए।

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