Sandhya Verma. Waste Paper Recycling: फाइल, फोल्डर, राइटिंग पेपर समेत दर्जनों स्टेशनरी प्रोडक्ट्स बनाती हैं संध्या वर्मा
Sandhya Verma. Waste Paper Recycling-मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में रहने वाली संध्या वर्मा पिछले 4 साल से कॉटन वेस्ट क्लॉथ से कागज तैयार कर सालाना एक करोड़ का कारोबार कर रही हैं। संध्या कॉटन वेस्ट से पेपर तैयार करती हैं। इससे वो फाइल, फोल्डर, राइटिंग पेपर समेत दर्जनों स्टेशनरी प्रोडक्ट्स बनाती हैं। संध्या सिंगल मदर हैं। वो 1990 के दौर को याद करते हुए कहती हैं, पीएचडी में एडमिशन लेने के 6 महीने बाद ही मुझे कोर्स छोड़ना पड़ा था।
पति चाहते थे कि मैं घर में ही रहूं। चौखट से बाहर न जाऊं। कॉलेज में लेक्चर्र की जॉब भी कुछ सालों तक करने के बाद छोड़ना पड़ा। ससुराल में नौकर की तरह काम करना पड़ता था। मैं सोचती थी, इतनी पढ़ाई मैंने चारदीवारी के बीच रहने के लिए की है? MA करने के दौरान रोजाना अपने शहर देवास से इंदौर 120 किलोमीटर बस से आना-जाना करती। इतना संघर्ष करने के बावजूद भी मेरी पढ़ाई काम नहीं आ रही थी।
घर की छत पर प्रोडक्शन यूनिट
शादी के 3 साल बाद यानी 1995 में मैंने अपने पति से तलाक ले लिया। उस वक्त मेरी बेटी एक साल की थी। उसे मैंने अपने साथ रखा और आज वो यूएस में डेटा साइंटिस्ट है। 55 साल की संध्या ने अपने घर की छत पर प्रोडक्शन यूनिट का एक हिस्से को सेट कर रखा है। वहीं, पल्प तैयार करने की मशीन उन्होंने ग्राउंड पर लगा रखी है।
वो कहती हैं, जब मैंने स्टार्टअप शुरू किया था, तो सारी मशीनें छत पर ही थीं, लेकिन इससे पूरे बिल्डिंग में वाइब्रेशन होने लगा। मुझे वो दिन भी याद है जब भोपाल शिफ्ट हुई थी, तो सिंगल मदर होने की वजह से लोग मकान किराए पर भी नहीं दे रहे थे। बहुत कोशिशों के बाद एक जानने वाले ने आसरा दिया। संध्या हमें पूरे प्रोसेस को समझाने के लिए यूनिट दिखाने के लिए छत पर लेकर जाती हैं। तस्वीर में उनके साथ टीम के कुछ लोग हैं।
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हर साल 60 से 70 हजार स्टूडेंट्स प्रोजेक्ट बनाते थे
संध्या बताती हैं, साइंस सेंटर एनजीओ के साथ करीब 18 साल से काम कर रही हूं। यह संस्था कॉलेज, यूनिवर्सिटीज के बच्चों को एनवायरनमेंट साइंस से जुड़े प्रोग्राम्स ऑर्गेनाइज करवाती है। 2004 में ट्रेनिंग के सिलसिले में भोपाल आई थी। मैंने देखा कि हर साल 60 से 70 हजार स्टूडेंट्स प्रोजेक्ट बनाते थे, जो बाद में कबाड़ हो जाते थे। एक प्रोजेक्ट में कम-से-कम 250 पेज लगते हैं, जिसका बाद में कोई इस्तेमाल नहीं होता। यदि इसे कैल्कुलेट करें, तो हर साल एक करोड़ 75 लाख से अधिक पेज बर्बाद होते हैं।
जिसके बाद मैंने कागज को रिसाइकिल करने का फैसला लिया। 2012-13 का साल था। हमने इस पर काम करना शुरू किया। शुरुआत में तो पता ही नहीं था कि कैसे-क्या करें। संध्या कहती हैं, भोपाल में यूनिट सेट करने के लिए कई राज्यों में जाकर स्टडी करने लगी। जो लोग पहले से रिसाइकिलिंग पर काम कर रहे थे, उनसे बातचीत करना शुरू किया। मध्य प्रदेश में कई साइंटिस्ट हैं, उनसे भी अपने आइडिया को लेकर डिस्कशन किया। सभी को ये पसंद आया
स्पेस के मुताबिक मशीनें बनवाईं
इसी सिलसिले में पता चला कि हरियाणा के यमुनानगर में पेपर को रिसाइकिल कर नया पेपर बनाने की मशीन बनाई जाती है। मैं यमुनानगर गई, वहां के इंजीनियर्स से बात कर यूनिट को डिजाइन करवाया और अपने स्पेस के मुताबिक मशीनें बनवाईं। मेरा शुरू से ही साइंस और एनवायरमेंट से लगाव रहा है। इसलिए अपने स्टार्टअप को लेकर रिसर्च और एक्सपेरिमेंट करने में मजा आने लगा। मेरे पास इतने पैसे नहीं थे कि अकेले ही यूनिट लगा पाऊं, तो अपने घर वालों की मदद ली, भाई ने पैसे दिए।
जब मैं अपने पति से अलग हुई थी, तब भी घर वाले मेरे साथ थे। संध्या अपनी चुनौतियों को लेकर बताती हैं, शुरुआत में बहुत दिक्कतें आईं। पहले हमने भोपाल के कुछ मजदूरों को स्किल्ड करना शुरू किया, लेकिन एक-दो दिनों में ही ये भाग जाते थे। कुछ तो कोरोना के दौरान बिना बताए चले गए। इससे भी हमें नुकसान हुआ। बाद में कुछ ऐसे लोग मेरे साथ जुड़े, जो दूसरी फैक्ट्रियों में काम करते थे। उन्होंने भी मुझे प्रोडक्शन को लेकर बहुत कुछ सिखाया। कॉटन वेस्ट से पेपर तैयार कर स्टेशनरी आइटम्स बनाने के अलावा संध्या डेकोरेटेड आइटम्स भी बनाती हैं।
नेचुरल कलर में पेपर तैयार होते हैं
संध्या वर्मा कहती हैं, साफ-सुथरे कॉटन वेस्ट को गारमेंट इंडस्ट्री से मंगवाकर इसे बारीक काटा जाता है। शुरुआत में तो हम हाथ से ही कटाई करते, लेकिन इसमें ज्यादा वक्त लगता। इसके बाद कपड़े को चॉप करने की मशीन सेट की। कपड़ों के कलर के मुताबिक भी अलग-अलग छटाई की जाती है। वाइट कपड़ा राइटिंग पेपर बनाने के लिए अलग इकट्ठा किया जाता है, जबकि डेनिम यानी जींस की कतरन को अलग। इससे नेचुरल कलर में पेपर तैयार होते हैं।
बारीक कटे कपड़ों की कतरन की इसी बीटिंग मशीन के जरिए ग्राइंडिंग की जाती है। करीब 3 घंटे तक पानी के साथ कपड़ों की प्रोसेसिंग होने के बाद पल्प तैयार होता है। यानी रेशे अलग-अलग हो जाते हैं। पल्प को पहले एक टैंक में भरते हैं, फिर स्क्वायर जालीदार फ्रेम पर अच्छी तरह से फैलाया जाता है। प्रेशर मशीन के साथ पानी निकाला जाता है और फिर इसे सूखने के लिए छोड़ देते हैं। 24 घंटे में यह अच्छी तरह सूख जाता है।
पल्प की क्वांटिटी बढ़ाई-घटाई जाती है
जालीदार फ्रेम का साइज आम तौर पर 22×30 होता है। पेपर की मोटाई के मुताबिक पल्प की क्वांटिटी बढ़ाई-घटाई जाती है। राइटिंग पेपर बनाने के लिए एक लीटर पल्प और कार्ड बोर्ड बनाने के लिए 20 लीटर पल्प डाला जाता है। 100% कॉटन वेस्ट के पल्प से भी पेपर तैयार किया जाता है। इससे पेपर की स्ट्रेंथ अच्छी होती है। वहीं, 75% कॉटन वेस्ट और 25% रद्दी कागज का पल्प भी तैयार किया जाता है। पेपर की स्ट्रेंथ के मुताबिक कॉटन वेस्ट और रद्दी पेपर के पल्प का परसेंटेज कम-ज्यादा किया जाता है। संध्या कहती हैं, साइंस से रिलेटेड ट्रेनिंग के सिलसिले में देशभर के इंस्टीट्यूट्स में जाती रहती हूं।
जब स्टूडेंट्स को पता चला कि कॉटन वेस्ट और रद्दी पेपर को रिसाइकिल कर पेपर और स्टेशनरी प्रोडक्ट बनाया गया है, तो उनकी दिलचस्पी और बढ़ने लगी। धीरे-धीरे डिमांड इतनी हो गई कि हमारी सप्लाई कम पड़ गई। अब हर प्रोडक्ट के हजार से ज्यादा ऑर्डर मिल जाते हैं। संध्या लॉकडाउन से पहले तक 20 लोगों की टीम के साथ काम कर रही थीं। लॉकडाउन के दौरान ये वर्कर्स अपने घर चले गए। इससे भी उन्हें नुकसान हुआ। वो कहती हैं, उस वक्त मैंने प्लांट शुरू किया ही था, तो बिजनेस का उतना आइडिया नहीं था। अब हमलोग पूरी तरह से स्किल्ड हो चुके हैं। टीम के कुछ लोग फील्ड पर काम करते हैं, जबकि कुछ मशीन पर और कुछ प्रोडक्ट डिजाइन को लेकर काम करते हैं। जब मेरी बेटी बड़ी हुई, तो उसने भी स्टार्टअप में हेल्प की।