Jammu-Kashmir Terrorism – ‘ऑपरेशन टोपैक’ साजिश का ताना-बाना बुना था जनरल जिया ने
Jammu-Kashmir Terrorism: जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद का पहला चरण 1980 के दशक के अंत और 1990 के दशक की शुरुआत में शुरू हुआ था। शुरूआत में कश्मीर में आतंकवाद की नुमाइंदगी जम्मू- कश्मीर लिबरेशन फ्रंट ने ‘कश्मीर की आजादी’ के प्रचारित नारे से की थी, जो पाकिस्तानी सैन्य प्रतिष्ठान द्वारा वित्तपोषित और समर्थित संगठन था। पाकिस्तान को तीन-तीन युद्धों के बाद भी कश्मीर पर मुंह की खानी पड़ी। ऐसे में पाक सेना के जनरल जिया उल हक का मानना था कि जो काम (कश्मीर पर कब्जा) पाकिस्तान 1947-48, 1965 और 1971 के युद्धों से नहीं कर सका, उसे कश्मीर घाटी में धार्मिक कट्टरपंथ, आतंकवाद और अलगाववाद को बढ़ावा देकर आसानी से कर सकता है। इसी कड़ी में सेना प्रमुख से राष्ट्रपति बने जनरल जिया ने 1988 में एक बैठक बुला ‘ऑपरेशन टोपैक’ साजिश का ताना-बाना बुना था।
अपरंपरागत युद्ध का संचालन
टोपैक समरू ने 18वीं शताब्दी में उरुग्बे में स्पेनी शासन के खिलाफ अपरंपरागत युद्ध का संचालन किया था। इससे प्रेरित होकर जिया ने इसे यह नाम दिया था। इसके बाद ही पाक पोषित आतंकियों ने 1989 में गृहमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद की बेटी को अगवा किया, जिन्हें छुड़ाने के लिए 13 आतंकी छोड़े गए। पाकिस्तानी राष्ट्रपति जनरल जिया उल हक ने भारत के खिलाफ के-2 खालिस्तान और कश्मीर युद्ध नीति लागू की थी। ऑपरेशन टोपैक के तहत घाटी और पंजाब में समानांतर आतंकवाद के बीज बोना था।
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पहले चरण के तहत घुसपैठ कराई
पहले चरण के तहत घाटी में व्यापक पैमाने पर आतंकियों की घुसपैठ कराई गई। उधर पंजाब के सिख युवाओं को खालिस्तान के सपने दिखाकर उन्हें भी अलगाववाद और आतंकवाद के रास्ते पर ले जाने के लिए ट्रेनिंग पाकिस्तान ने शुरू कराई। पाकिस्तान चाहता था कि मुख्यत: पंजाब और घाटी के रूप में दो-दो मोर्चों पर आतंकवाद से जूझने पर भारत को अस्थिर करने में आसानी होगी। इसके तहत अलगाववादियों को पाकिस्तान में प्रशिक्षण, पैसा और हथियार देने की व्यवस्था हुई। नतीजा रहा कि कश्मीर में आतंकवाद ने भयंकर रूप ले लिया। पाकिस्तान समर्थित आतंकियों ने इस पैमाने पर हिंसा फैलाई कि राज्य का प्रशासन ठप पड़ गया।
घाटी में आतंकवाद अपने चरम पर 1990-91 में
1990 और 1991 में घाटी में आतंकवाद अपने चरम पर पहुंच गया। जिया और आईएसआई प्रमुख रहमान के षडयंत्र के 3 उद्देश्य थे। भारत के अल्पसंख्यकों में अलगाव भड़का उनको अलग देश बनाने के लिए उकसाया गया। आईएसआई की मदद से भारत के अंदर राष्ट्र विरोधी समूह और संगठन तैयार किए गए। प्रतिबंधित सिमी संगठन उनमें से ही एक था। नेपाल और बांग्लादेश की उन सीमाओं का इस्तेमाल करना जहां सुरक्षा के बंदोबस्त ज्यादा मजबूत नहीं थे। उन इलाकों में अपना बेस स्थापित करने और वहां से अभियानों को अंजाम देने की योजना थी। जनरल जिया ने कश्मीर की आजादी के लिए अपनी जिहादी सेना तैयार की। उसने जम्मू-कश्मीर लिब्रेशन फ्रंट की अलगाववादी भावनाओं को भड़काया।
2.5 लाख कश्मीरी पंडितों पर अत्याचार
इसके साथ ही पाकिस्तान और कश्मीर में जमात-ए-इस्लामी की जिहादी आतंकी संगठन ‘हिज्बुल मुजाहिदीन’ का इस्तेमाल किया। इसके नतीजे में कश्मीर में कई छोटे-छोटे आतंकी संगठनों ने सिर उभारा। 1988 और 1990 के बीच अकेले कश्मीर में करीब 150 आतंकी संगठन सक्रिय थे। ऑपरेशन टोपैक के तहत ढाई लाख कश्मीरी पंडितों पर अत्याचार कर उन्हें घरों से भगा दिया गया। आतंकी गैर मुस्लिमों की हत्या करने लगे। हालात इतने बिगड़े कि 1990-1996 तक राज्यपाल शासन रहा। 1996 में चुनाव हुए। सरकारी आंकड़ों की मानें तो 1990 से अब तक जम्मू-कश्मीर में पाक प्रायोजित आतंकवाद की वजह से करीब 42,000 लोगों की मौत हुई है। हालांकि वास्तविक संख्या इससे कहीं बहुत अधिक है।
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19 जनवरी की रात के बाद चीजें बदली
19 जनवरी 1990 को वो दिन जब कट्टरपंथियों ने ये ऐलान कर दिया कि कश्मीरी पंडित काफिर हैं। वो या तो कश्मीर छोड़ कर चले जाए या फिर इस्लाम कबूल कर ले नहीं तो उन्हें जान से मार दिया जाएगा। कट्टर पंथियों ने कश्मीरी पंडितों की घरों की पहचान करने को कहा ताकि वो योजनाबद्ध तरीके से उन्हें निशाना बना सके। इसी दौरान बड़े पैमाने पर कश्मीर में हिन्दू अधिकारियों, बुद्धिजीवियों, कारोबारियों और दूसरे बड़े लोगों की हत्याएं शुरू हो गई। 4 जनवरी 1990 को उर्दू अखबार आफताब में हिज्बुल मुजाहिदीन ने छपवाया कि सारे पंडित कश्मीर की घाटी छोड़ दें। अखबार अल-सफा ने इसी चीज को दोबारा छापा। चौराहों और मस्जिदों में लाउडस्पीकर लगाकर कहा जाने लगा कि पंडित यहां से चले जाएं, नहीं तो बुरा होगा।
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