World Of Food: आदर्श काया के पैमाने में फिट नहीं होते ऐसे लोग
World Of Food: कोई तीन दशक पहले की बात है, मक्खन के बारे में माना जाता था कि यह सेहत के लिए अच्छा नहीं है, इससे कोलेस्ट्रोल बढ़ता है। शायद यही वजह थी कि बीच में मार्जरीन नामक मक्खन का चलन शुरु हो गया, जो वनस्पतियों और जानवर की चर्बी से मिलकर बनता था। लेकिन बाद में एक विस्तृत रिसर्च हुई और पाया गया कि मक्खन नहीं, बल्कि मार्जरीन शरीर के लिए नुकसानदायक है। कहने की जरूरत नहीं है कि इस रिसर्च ने मक्खन की किस्मत बदल दी। एक बार फिर से मक्खन ‘टेस्ट ऑफ इंडिया’ और ‘टेस्ट ऑफ द वर्ल्ड’ हो गया। खाने पीने के संबंध में धारणाएं स्थायी नहीं रह गई हैं बल्कि कहना चाहिए कि जैसे-जैसे संचार के माध्यम तीव्र हुए हैं, वैसे-वैसे खान-पान को लेकर धारणाएं भी तेजी से बनी बिगड़ी हैं।
लेकिन इन धारणाओं से सिर्फ कुछ चीजों का इस्तेमाल ही नहीं बढ़ा है बल्कि कई ज्यादा इस्तेमाल की जाने वाली चीजों में विराम भी लगा है। लेकिन सबसे ज्यादा खराब यह हुआ है कि किसी भी चीज को लेकर कोई स्थायी धारणा नहीं बची। करीब-करीब हर महीने आने वाले एक दर्जन से ज्यादा खान-पान संबंधी शोधों ने लोगों को बहुत कंफ्यूज कर दिया है कि वह ये खाएं या वो खाएं। हर रोज बदलती धारणाओं के कारण ज्यादातर लोगों को अंतिम रूप से यह तय करना ही मुश्किल होता है कि वह क्या खाएं जो पूरी तरह से फायदेमंद हों। खानपान की रोज आने वाली नई-नई रिसर्च से लोगों का जितना खान-पान को लेकर ज्ञान नहीं बढ़ा, उससे कहीं ज्यादा वो इस सबको लेकर परेशान हो गए हैं।
नई रिसर्च को सामने लाना मजबूरी
ऐसा नहीं है कि खान-पान उद्योग इस बात को न जानता हो, लेकिन मजबूरी यह है कि विज्ञान में कोई खोज आखिरी नहीं होती। इसलिए एक रिसर्च के जो नतीजे आते हैं, उसी चीज को लेकर की गई आगे किसी और रिसर्च से दूसरे नतीजे सामने आ जाते हैं। इससे न चाहकर भी नई रिसर्च को सामने लाना ही पड़ता है तब इस पुरानी रिसर्च के हिसाब से चलने वाले लोग परेशान हो जाते हैं। खान-पान की सजगता को लेकर हाल के दशकों में जो तनाव या डर पैदा हुआ है, वह इसलिए भी हुआ है क्योंकि पिछले तीन दशकों से मोटापे ने दुनिया को अपनी गिरफ्त में ले लिया है।
6 दशक पहले के मुकाबले आज दुनिया 900 फीसदी ज्यादा मोटी है और तीन दशकों के हिसाब से देखें तो करीब 600 फीसदी मोटापा बढ़ा है। कहने की सीधी सी बात यह है कि पिछले तीन दशकों में तमाम सजगताओं के बावजूद हमारे खान-पान की शैली और कार्य संस्कृतियों ने मोटापा बढ़ा दिया है। आज दुनिया में पतले लोगों के मुकाबले मोटे लोगों की तादाद बहुत ज्यादा है। सच तो यह है कि 79 फीसदी से ज्यादा लोग किसी न किसी रूप में आदर्श काया के पैमाने में फिट नहीं होते, वे मोटे हैं, भले बहुत मामूली मोटे ही क्यों न हों।
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अतिरिक्त रूप से सजग बनाया मोटापे ने
दरअसल इस बढ़ते मोटापे ने ही हमें न सिर्फ अतिरिक्त रूप से सजग बनाया है बल्कि खान-पान पर बारीक नजर रखने वाला भी बनाया है इसी के चलते आये दिन तरह-तरह के शोध सामने आ रहे हैं। जो कुल मिलाकर हमें हैरान परेशान करने में पीछे नहीं रहते। एक ब्रितानी खुराक विशेषज्ञ रोजमेरी स्टैंटन कहती हैं कि लोग खान-पान को लेकर कुछ ज्यादा ही जागरूक हो रहे हैं, जिस कारण वह खुद को दुबला पतला और फिट रखने के लिए सुपर फूड लेते हैं।
लेकिन महज खान-पान से मोटापे को नहीं रोका जा सकता है, चाहे आप कितने ही सेहतमंद फार्मूले क्यों न बना लें। हां, लोगों की इस चिन्ता और चिन्ता के इस फैलते मनोविज्ञान ने एक ऐसे बड़े बाजार को जरूर पैदा कर दिया है, जहां लोगों की अतिरिक्त सजगता के चलते भोजन का किसी रासायनिक पदार्थ की तरह गणितीय विश्लेषण किया जाता है। इसी चक्कर में हर खाने को अनगिनत नजरियों से जांचा, परखा जाता है। जैसे ही कोई नया नजरिया मिलता है, उसे उसके हिसाब से बाजार में पेश किया जाने लगता है।
पुरानी खूबियों को धुंधला कर देते हैं नये निष्कर्ष
नतीजा तब यह भी निकलता है कि उस खाने को लेकर लोगों के दिलोदिमाग में बसी पुरानी धारणाएं, विरोधाभास पैदा कर देती हैं। ऐसे में आम आदमी इस भ्रम का शिकार हो जाता हैं कि वह क्या खाएं, क्या न खाएं? हर रोज फूड बाजार में नये से नये प्रोडक्ट आते हैं, जो अपने नये निष्कर्षों से उनकी पुरानी खूबियों को धुंधला कर देते हैं।
इससे होता यह है कि बाजार में एक साथ, एक ही समय में और एक ही फूड को अलग-अलग पीढ़ियों के लोग अलग-अलग उम्मीदों के साथ खाते हैं और उनकी अलग-अलग खामियों से एक ही समय बचने की कोशिश करते हैं। कुल मिलाकर जहां आज की तारीख में खानों के तमाम नजरियों से विश्लेषण करने का चलन बढ़ा है, जिससे उनके बारे में जानकारियां बढ़ी हैं तो दूसरी तरफ यह भी हुआ है कि लोग बहुत कंफ्यूज हो गए हैं। रिसर्च की दुनिया से लगातार अपडेट न रहने के कारण ज्यादातर लोगों को लगता है यह कोई साजिश है, जिसके तहत हर कुछ महीनों या सालों में किसी भी चीज को उसकी नई खूबियों और खामियों से पेश करने का चलन बन गया है।
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