Senior Citizen: पुरानी पढ़ी को जिंदगी असफल-सपने अधूरे लगते हैं
वह पीढ़ी जो पुराने भारत में पैदा हुई थी और अपने करिअर के पीक के दिनों में आर्थिक, तकनीकी और जीवनशैली से संबंधित बदलाव से रूबरू हुई थी, वह पीढ़ी उम्र के पैमाने में तो एक निश्चित समय के बाद ही अधेड़ हुई और बूढ़ों की दुनिया में प्रवेश के लिए दरवाजे के बाहर पहुंच गई लेकिन उसके सपने, उसकी ख्वाहिशें और उसकी आकांक्षाएं अब के पहले किसी भी अधेड़ या बूढ़े से मेल नहीं खा रहे।
2010 के बाद अधेड़ या सीनियर सिटिजन के दायरे में पहुंचे व्यक्तियों में आज हर तीसरा अपनी अधूरी ख्वाहिशों के चलते बेचैन है। हालांकि अपने से पहले की तमाम पीढ़ियों के मुकाबले इसने ज्यादा सफलताएं पायी हैं, ज्यादा आर्थिक उन्नति भी की है लेकिन आज अपने से पीछे की पीढ़ी की सुविधाएं, सपने और वैभव को देखकर ये बेचैन हैं। पांचवें वेतन कमीशन के पहले रिटायर हो गए लोगों के लिए सातवें वेतन कमीशन के बाद मिले वेतन भत्ते या पेंशन हैरान और परेशान करने वाले रहे।
आज वह पीढ़ी जो नरसिम्हा राव की नई आर्थिक नीतियों के लागू होने के दौरान नौजवान हुई थी और इन नीतियों के फलने-फूलने तक रिटायर होने की तरफ बढ़ चली वह पीढ़ी ऐसी वरिष्ठ नागरिकों की पीढ़ी है जो तकनीकी रूप से तो बूढ़ी हो गई लेकिन अपने इर्द-गिर्द फलने-फूलने का जो सिलसिला देखा है, उसके कारण इसे अपनी जिंदगी असफल और सपने अधूरे लगते हैं।
लगता है कोई चीटिंग हो गयी है…
साल 2011 में 8.1 करोड़ सीनियर सिटिजन थे। इनमें से करीब 60 फीसदी ऐसे थे जो स्वस्थ थे। हर तरह के कामकाज के लायक थे। बहुत सारी स्किल्स के मालिक थे और अच्छा खास कमा भी रहे थे। आने वाले वर्षों में ऐसे स्वस्थ और सपने पालने वाले वरिष्ठ नागरिकों की संख्या 30 करोड़ से ऊपर जायेगी। हालांकि कोरोना के चलते जनगणना में हुई देरी के कारण यह आंकड़ा अभी तक नहीं आया लेकिन माना जा रहा है कि आज देश में करीब 25 करोड़ ऐसे सीनियर सिटिजन हैं जिनमें 12 से 14 करोड़ हर तरह से कार्यक्षम और अच्छा उपभोग करने वाले और न सिर्फ वर्तमान में सक्रिय बल्कि अगले एक दशक तक की अपने लिए योजना बनाने वाले हैं। वास्तव में ये ऐसे अधेड़ या वरिष्ठ नागरिक हैं जो बेहद बेचैन हैं।
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दुनियाभर की बेचैनियों को अपने सिर पर उठाए हैं और अधेड़ और वरिष्ठ नागरिक होने की पारंपरिक परिभाषा को हर हाल में बदलने के लिए तैयार हैं। बेचैनी की दो कारण हैं। एक तो देश में बुजुर्गों (60+वर्ष) की संख्या बड़ी तेजी से बढ़ी है और पीछे उससे भी तेज अधेड़ों का रेला चला आ रहा है। दूसरी वजह यह कि हाल के दशक इतनी तेज रफ्तार और उथल-पुथल भरी घटनाओं वाले रहे हैं कि पता ही नहीं चला कब बूढ़े हो गए यानी बूढ़े होने का ठप्पा लग गया। बिल्कुल ठगे सा रह जाने वाला एहसास हो रहा है। लगता है कोई चीटिंग हो गयी है। ये सोचते हैं अभी-अभी तो अपने सपनों और योजनाओं को व्यवस्थित किया था कि खट्ट से बुढ़ापे का फरमान आ गया। लोग हैरानी से अपने हाथ-पैर, दिल-दिमाग और पहनावे-ओढ़ावे को देख रहे हैं और उन्हें यकीन नहीं हो रहा कि जो कहा जा रहा है वह सही है।
शरीर ने भी आईना नहीं दिखाया
दरअसल पिछले कुछ दशक इतने उथल-पुथल भरे रहे हैं कि आज के सीनियर सिटिजन को इस स्थिति के लिए तैयार होने का समय ही नहीं मिला। शरीर ने भी आईना नहीं दिखाया क्योंकि न तन से बूढ़े हुए हैं और न ही मन से। ये इन सबसे बगावत भी कर सकते थे लेकिन इनकम ने इन्हें ठेंगा दिखा दिया। दरअसल तकनीकी रूप से हाल में बूढ़ी और तेजी से अधेड़ हुई यह वह पीढ़ी है जिसने देश के 2 रूप देखे हैं।
जब यह पीढ़ी नौजवान हुई थी तब देश अनंत समस्याओं का घर था और आर्थिक रूप से अक्लमंद होने का पैमाना कम से कम में जीवन गुजारना था लेकिन इनकी जवानी के दिनों में ही 90 के दशक में आयी नई आर्थिक नीतियों के बाद प्रधानमंत्री स्वर्गीय पीवी नरसिम्हा राव और तत्कालीन वित्त मंत्री डॉ. मनमोहन सिंह (जो बाद में 2 बार लगातार प्रधानमंत्री बने) की जोड़ी ने धीरे-धीरे देश की आर्थिक सूरत और हमारी पारंपरिक जीवनशैली की सीरत बदल दी। 90 के दशक के उत्तरार्ध में एक साथ इतने सारे बदलाव हुए जो उससे पहले के 4-5 दशकों में कभी नहीं हुए थे।
देश में संचार क्रांति हुई
देश बहुत तेजी से बदलने लगा। यही वह समय था जब देश में संचार क्रांति हुई। जिस देश में टेलीफोन लग जाने पर घर का स्टेटस बदल जाता था, लोग मुहल्ले में खुशी के लड्डू बंटवाते थे, उसी देश में घर में टेलीफोन लगाना अब इतना आसान हो गया कि बाजार गए और साथ में टेलीफोन लिए चले आए। सिर्फ टेलीफोन तक ही यह बदलाव सीमित नहीं था। स्कूटर, मोटरसाइकिल और कारों के मामलों में भी यही हो गया।
देश में आयी विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियां लोगों को इतना वेतन देने लगीं कि एक-दो बार बताने पर कानों को यकीन ही नहीं होता था। बैंक मध्यवर्ग को इतनी सहजता और उदारता से कर्ज बांटने लगे कि जिस देश में औसतन 45 साल की उम्र के बाद नौकरी पेशे वाले लोग अपना मकान बना पाते थे, उस देश में युवा 28, 29 साल की उम्र में अपना फ्लैट और अपनी गाड़ी, ईएमआई के जरिये खरीदने लगे। देस में ये सब बहुत तेजी से हुआ। रातोरात जीवनशैली बदल गई। सपने बदल गए।
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कम्प्यूटर सीखने का दबाव बनाया
यहीं पर उस दौर की युवा और स्थापित पीढ़ी के साथ कुछ नाइंसाफी भी हुई। वह पीढ़ी जो बेहद गरीब भारत में अपनी मेहनत और कोशिशों से उठकर व्यवस्थित हुई थी और यह समझ रही थी कि वह पारंपरिक रूप से सफल है, अचानक वह 90 के दशक के उत्तरार्ध में कम्प्यूटर इलिटरेट हो गई। हर दफ्तर में कम्प्यूटर हो जाने या जल्द ही कम्प्यूटर हो जाने की संभावना ने इस पीढ़ी में रातोरात कम्प्यूटर सीखने का दबाव बनाया और करीब-करीब 70 से 80 फीसदी तक लोगों ने अपने आपको नई तकनीकी जरूरतों के रूप में ढाला भी लेकिन 20 से 25 फीसदी लोग ऐसा नहीं कर पाए और उन्हें अपनी नौकरी गंवानी पड़ी। जो लोग हर हाल में संघर्ष करके अपने आपको नई तकनीक के अनुकूल ढाला, उनकी भी रफ्तार और परफार्मेंस उस पीढ़ी के सामने गच्चा खा गई जो कम्प्यूटर, मोबाइल और इंटरनेट के बीच ही आंखें खोली थीं।
संधिकाल में पुरानी पीढ़ी को हार मान गई
सवाल है, इसमें नई कौन सी बात है। ऐसा तो पहले भी होता रहा है कि दो पीढ़ियों के संधिकाल में पुरानी पीढ़ी को हार माननी ही पड़ती रही है लेकिन 21वीं सदी में कुछ ऐसा हुआ जो पहले नहीं हुआ था। 21वीं सदी के पहले दशक में संचार माध्यमों विशेषकर इंटरनेट की बदौलत सचमुच में दुनिया एक ग्लोबल विलेज में बदल गई। पहले यह बात सिर्फ जुमलों और कुछ लोगों की वास्तविकता तक ही सीमित थी लेकिन 21वीं सदी के पहले दशक में दुनिया के 80 से 90 फीसदी तक आम से आम लोगों के कामकाज से लेकर खानपान और कमाई तक के संबंध भूमंडलीय हो गए।
कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक आम लोगों के घरों में चाऊमीन, मैगी, मंचूरियन और पिज्जा पहुंच गए। सस्ते और आसानी से मिलने वाले लोन के कारण 1998 से 2013 तक लगातार कारों की संख्या में 10 से 15 फीसदी का इजाफा सालाना हुआ। औसतन लगभग हर तीसरे घर में दोपहिया वाहन की एंट्री हो गई और पूरे देश में लगभग 5 करोड़ छोटे-बड़े मकान करीब डेढ़ दशकों के भीतर अस्तित्व में आये। इसलिए लगातार रियल स्टेट 20 फीसदी या इसके ऊपर की वृद्धि करता रहा।
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उम्मीदों का भारी-भरकम बोझ
उम्र बढ़ती जा रही है। काम का बोझ भी बढ़ता जा रहा है लेकिन आय समानुपातिक रूप में या तो घट रही है या जरूरतों व महत्वाकांक्षाओं के सामने मामूली होती जा रही है। आज देश में ताजा-ताजा हुए सीनियर सिटिजन या होने के कगार पर खड़े ज्यादातर लोगों की यही स्थिति है। एक जमाना था जब यह उम्र या इस उम्र के नजदीक पहुंचना स्वतः राहत महसूसना होता था। जीवन में भले कुछ न कर पाए हों लेकिन दिल में कोई बहुत बेचैनी नहीं होती थी।
शायद उम्र के इस पड़ाव तक आते-आते दिल दिमाग ऑटोमेटिक स्वीकार कर लेता था कि जो कुछ हो सकता था, वह हो गया। आज ऐसा नहीं है। आज नया-नया हुआ सीनियर सिटिजन या इसके नजदीक पहुंच रहा शख्स अपने सिर पर उम्मीदों और असफलताओं का भारी-भरकम बोझ लादे हुए है जिसकी वजह से वह बेचैन है।
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