Youth in Politics: देश के यूथ को समझने की जरूरत
Youth in Politics: युवा जितना जल्दी समझें, उतना जरूरी है कि राजनीति विलेन नहीं है। यह न सिर्फ हम सबके लिए बल्कि आने वाली पीढ़ियों की भी बेहतरी के लिए जरूरी है। अतः युवाओं का राजनीति के बारे में फिर से सोचना चाहिए और जिस तरह वे अपने जोरदार उत्साह और उछाल मारती कल्पनाशीलता के चलते दूसरे क्षेत्रों में सिरमौर बने हुए हैं, वह कारनामा राजनीति में भी करें। यही इस देश के लिए और खुद युवाओं के भविष्य के लिए भी अच्छा है।
युवाओं को खासकर भारत में लगता है कि जैसे राजनीति का काम उन लोगों का है जिनके घरों में पारंपरिक तरीके से राजनेता होते चले आये हैं या फिर यह अमीरों और अपराधियों का काम है। इस सोच ने भारत का जितना बुरा किया है उतना तो नशे की किसी लत ने भी नहीं किया। बहुसंख्यक युवाओं के दिल दिमाग में राजनीति को अपराध की तरह महसूस करने की यह धारणा युवाओं को राजनीति से दूर कर दिया है। यही कारण है कि भारत जैसे देश में जो हर क्षेत्र में इनोवेटिव आइडियाज के साथ आगे बढ़ रहा है वहां राजनीति पिछली सदी के 60 और 70 के दशक वाली ही चल रही है जहां कानून का नहीं, तर्क का नहीं, ताकत और दादागिरी का राज चलता था।
युवाओं के विरुद्ध भूमंडलीय साजिश
क्या यह राजनीति में शासन करने के संबंध में बूढ़ों की युवाओं के विरुद्ध भूमंडलीय साजिश नहीं है? अगर किसी भी क्षेत्र के डाटा को देखें तो हर जगह युवाओं का वर्चस्व है सिवाय राजनीति के, जो बाकी सभी क्षेत्रों के लिए निर्णय लेती है। गौरतलब है कि देश में कमाने वाले लोगों में सबसे बड़ी तादाद युवाओं की है। देश में पूंजी बनाने वाले और प्रतिदिन औसत घंटे काम के मामले में भी बूढ़ों और युवाओं में जमीन आसमान का फर्क है। फिर भी राजनीति जैसा महत्वपूर्ण क्षेत्र जहां सभी क्षेत्रों के लिए अंततः नीति निर्धारक निर्णय लिए जाते हैं, वहां युवा या तो हैं ही नहीं है या फिर बहुत कम हैं। सवाल है इसके पीछे क्या वजह है? निश्चित रूप से इसमें युवाओं की सामाजिक और राजनीतिक समझ का बड़ा योगदान है। भारत ही नहीं दुनिया के ज्यादातर देशों में युवा और राजनीति एक दूसरे के आमने-सामने खड़े हैं।
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आबादी के बराबर सांसद किसी देश में नहीं
अगर सवाल किया जाए कि क्या दुनिया में कोई ऐसा देश है जहां उसकी युवा आबादी के बराबर युवा सांसद है तो उत्तर होगा- नहीं। यहां तक कि 35 साल तक के सांसदों का भी दुनिया के किसी भी देश में वर्चस्व नहीं है। दुनिया की सारी संसदों के महत्वपूर्ण सदन में 30 साल के कम आयु वाले सांसदों का सबसे ज्यादा प्रतिशत नार्वे में है लेकिन वह भी सिर्फ 13.61 फीसदी है। आर्मेनिया में 12.12, सैनमारिनो में 11.67, गैंबिया में 10,34, वेनेजुएला में 9.82, सूरीनाम में 9.80, डेनमार्क में 9.50, स्वीडेन में 9.40, जिबूती में 9.23 और चिली में 8.39 फीसदी सांसद ही 30 साल या इससे कम उम्र के हैं। इससे पता चलता है कि दुनिया के 10 सर्वाधिक युवा सांसदों वाले देश की पार्लियामेंट में भी युवा सांसदों की संख्या वहां के कुल सांसदों में छठवें हिस्से के बराबर भी नहीं है।
10 गुना युवा थी संख्या आज के मुकाबले
भारत दुनिया का सबसे युवा देश है। 10 से 24 साल के युवाओं की हमारे देश में जनसंख्या 35.6 करोड़ है जबकि चीन में यह महज 26.9, अमेरिका में 6.5, पाकिस्तान में 5.9, नाइजीरिया में 5.7, ब्राजील में 5.1 और बांग्लादेश में 4.8 करोड़ है। अगर युवा की परिभाषा को 35 साल तक ले जाएं तो भारत में 35 साल से नीचे उम्र वाले लोगों की जनसंख्या 65 फीसदी है। इसलिए भारत के तमाम क्षेत्रों में युवाओं की भरमार दिखनी स्वाभाविक है लेकिन राजनीति एक ऐसा क्षेत्र भी है जहां युवा बेहद पीछे हैं।
भारत की पहली लोकसभा में सांसदों की उम्र का औसत ।।। वर्ष था। इस समय जो सांसद मौजूद हैं यानी जिसे 2019 में चुना गया है, उनमें हमारे सांसदों की औसत आयु 57 साल है। देश के किसी भी दूसरे क्षेत्र की औसत प्रतिनिधि उम्र नहीं है। यह हैरान करने वाली सच्चाई है कि आजादी के समय जब बहुत से ऐसे राजनेता चुनकर आये थे, जो लंबे समय तक आजादी की लड़ाई में भी हिस्सेदारी की थी, लेकिन तब आज के मुकाबले संसद 10 गुना युवा थी। यह अकेले भारत की बात नहीं है। दुनिया के जितने भी देश अपने आपको लोकतंत्र का रखवाला समझते हैं, उन सब देशों का यही हाल है। हालांकि भारत जैसा हाल तो कहीं का नहीं है।
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युवाओं की भागीदारी काफी कम
अगर इंटर पार्लियामेंट्री यूनियन के आंकड़ों को देखें तो लोकतंत्र के ज्यादातर हिमायती देशों की संसदों में युवाओं की भागीदारी दूसरे क्षेत्रों के मुकाबले काफी कम है। 30 साल के कम उम्र के सांसदों का वैश्विक अनुपात महज 2.6 फीसदी है। भारत में यह और भी कम महज 2.2 है जबकि भारत की औसत आयु साल 2011 की जनगणना के मुताबिक 25 साल है और देश के कॉरपोरेट क्षेत्र में निर्णय लेने वालों की औसत उम्र 35 साल है। देश में महज संसद एकमात्र ऐसी जगह है जहां न सिर्फ बूढ़ों का वर्चस्व है बल्कि यह वर्चस्व निरंतर बढ़ता जा रहा है। पहली लोकसभा में जहां 66 से 75 साल के सांसदों की संख्या महज 11 थी वहीं 16वीं लोकसभा (2014) में इनकी संख्या बढ़कर 105 हो गई। यानी सबसे बूढ़े सांसदों की संख्या में पिछले 62 सालों में 1000 फीसदी की बढ़ोतरी हो गयी।
सोचने वाली बात यह है कि यह कोई छोटी मोटी संख्या नहीं है। कुल की 20 फीसदी संख्या है। अगर 25 से 35 साल के सांसदों (लोकसभा सदस्यों) की बात करें तो पहली लोकसभा में जहां इनकी संख्या 82 यानी करीब 18 फीसदी थी वहीं 16वीं लोकसभा में इनकी संख्या घटकर महज 19 यानी 3.6 फीसदी रह गई। यह हैरानी की बात है कि एक तरफ दुनिया जहां लगातार औसतन युवा हो रही है वहीं दुनिया के ज्यादातर देशों में वहां की संसदें बूढ़ी हो रही हैं। भारत में तो कमाल ही हो गया है। एक तरफ जहां भारत दुनिया का सबसे युवा देश है वहीं संसद सदस्यों के मामले में भारत दुनिया के सबसे बूढ़े देशों में से एक है। जहां पूरी दुनिया की संसदों में युवा संसदों का औसत 2.6 है, हमारे जैसे युवा देश में वह महज 2.2 है।
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