Public Relation: पुरुष बनाम महिला प्रतिस्पर्धा में लगा विराम
बेशक प्रतिस्पर्धा की दौड़ में अब तक पुरुष महिलाओं से बहुत आगे हैं। लेकिन तेजी से महिलाओं की प्रगति का बढ़ता ग्राफ इस ओर इशारा कर रहा है कि आने वाले दिनों में महिलाओं के बिना बाजार में टिके रहना तक मुश्किल हो जायेगा। कुछ पेशों ने तो ‘मेल फ्री जोंस’ की घोषणा करके इस बात की पुष्टि भी कर दी है।
इनमें से एक क्षेत्र है पब्लिक रिलेशन। इस पेशे में अब न सिर्फ महिलाओं का दबदबा है बल्कि इस क्षेत्र में पुरुषों की मौजूदगी अब नामौजूद होने के बराबर रह गई है। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि इस क्षेत्र में पुरुष बनाम महिला की हो रही प्रतिस्पर्धा में अब विराम लग चुका है और यह क्षेत्र महिला प्रधान क्षेत्र घोषित हो चुका है। ऐसे कई और क्षेत्र भी हैं, जहां पुरुष अब नाममात्र के या कम से कम रह गये हैं।
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पुरुषों की भी मौजूदगी जरूरी
सवाल है क्या ये महिलाओं के स्वस्थ विकास के लिए सही है? शायद ऐसा नहीं है। अगर थोड़ी देर को हम मनोवैज्ञानिक तौर पर न भी सोचें तो भी व्यवहारिक रूप में महिलाओं के साथ पुरुषों की भी मौजूदगी उतनी ही जरूरी है, जितनी कि पुरुषों के साथ महिलाओं की। इसलिये सिर्फ मेल जोन या सिर्फ फीमेल जोन दोनों ही किसी भी क्षेत्र के लिये नुकसानदायक हैं।
वास्तव में लिंग असंतुलन किसी भी रूप में, किसी भी कम्पनी के लिये अच्छा नहीं होता। यह हमेशा खराब और भयावह होता है। यह इसलिए भी जरूरी है क्योंकि अभी भी संपूर्णता में पुरुषों की ही प्रधानता है, नतीजतन अगर किसी कंपनी में महिला कामगारों की प्रधानता हो जाती है, तो पुरुष प्रधान मैनेजमेंट उन्हें उतनी तवज्जो नहीं देता जितनी कि वे हकदार होती हैं। इसका नुकसान ये होता है कि कंपनी का विकास रूक जाता है।
संतुलन बने रहना कंपनी के लिये फायदेमंद
बात सिर्फ इतनी भी नहीं है, कई और समस्याएं हैं जैसे- महिला हर जगह परफेक्ट डिसीजन मेकर नहीं होती। कई जगहों पर निर्णय लेने के लिए आक्रामक होना पड़ता है ताकि तुरंत निर्णय लिया जा सके। ऐसे मामलों में महिलाएं अभी भी काफी पीछे हैं और उनका आत्मविश्वास अब तक कमजोर ही है। हालांकि भविष्य में क्या होगा, यह कहना मुश्किल है। लेकिन हाल फिलहाल बाजार की स्थिति देखते हुए जरूरी है कि किसी भी कंपनी, समूह या संगठन में महिलाओं और पुरुषों की भागीदारी बराबर हो। इससे महिलाएं भविष्य के लिए बेहतर डिसीजन मेकर के रूप में भी तैयार हो सकेंगी। अकेली महिलाओं के ओर भी कई नुकसान हैं। जैसे उनका माँ बनना। काम और माँ बनने के बीच चुनना हो तो शायद ही दुनिया में कोई ऐसी महिला हो जो काम को सर्वप्रिय सूची में डाले। हर महिला पहले माँ बनना चाहेगी। इसमें कोई बुराई भी नहीं है। लेकिन इस स्थिति में मैनेजमेंट की स्थिति गड़बड़ा सकती है।
ऐसी और भी कई स्थितियां हैं जो किसी भी कंपनी में महिलाओं की प्रधानता को अव्यवहारिक बनाती हैं। लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं है कि हर जगह पुरुषों की प्रधानता हो। किसी भी कंपनी में सिर्फ महिला या सिपर्फ पुरुष कभी भी अच्छा निर्णय नहीं हो सकता। दोनों में संतुलन बने रहना बहुत जरूरी है। यह कम्पनी के लिये भी फायदेमंद है। दरअसल कम्पनी का माहौल भी विकास के लिये एक महत्वपूर्ण मुद्दा है। जहां सिर्फ महिलाएं होती हैं या सिर्फ पुरुष वहां रुचिकर कुछ नहीं रह जाता। इसके उलट काम बोझ के रूप में तब्दील होता है। इसलिये दोनों ही लिंगों का कम्पनी में होना बहुत जरूरी है।’
नया आइडिया होता है विकसित
दरअसल कहने की बात यह है कि कई फैसले सिर्फ पुरुष कर सकता है तो कई काम सिर्फ महिलाओं के जिम्मे छोड़े जा सकते हैं।
इसके अलावा महिला और पुरुष दोनों मिलकर ज्यादा काम कर सकते हैं, वह भी बिना बोर हुए। मजे की बात यह है कि जिस दफ्तर में पुरुष-महिला दोनों कार्यरत होते हैं, वहां कर्मचारियों को अगले दिन का इंतजार रहता है जबकि सिर्फ प्रधानता विशेष वाले क्षेत्रा में ऐसा देखने को नहीं मिलता। विशेषज्ञ इस बात पर जोर देते हुए कहते हैं कि महिला प्रधानता होने से भी कम्पनी में ठहराव आ सकता है और पुरुष प्रधानता होने पर भी। इसलिये विशेषज्ञों का मानना है कि किसी कंपनी में दोनो की मौजूदगी संतुलन के हद तक लाजमी है। यही व्यवहारिक भी है। विशेषज्ञों के मुताबिक, ‘कम्पनी में सिर्फ पुरुष का होना या फिर सिर्फ महिलाओं का होना बिल्कुल गर्ल्स स्कूल या ब्वॉयज स्कूल की तरह होना है। जिस तरह ब्वॉयज अकसर छुट्टी के बाद गर्ल्स स्कूल के बाहर पहरा देते नजर आते हैं, उसी प्रकार दफ्तरों में भी देखने को मिल सकता है। हालांकि कर्मचारी बचकानी हरकतें नहीं करेंगे। लेकिन गौर करने की बात यह है कि दफ्तर में आने की उनकी ललक खत्म हो जायेगी।
इतना ही नहीं महिला और पुरुष के आइडियाज मिलकर ही एक नया आइडिया विकसित करते हैं, नए नए प्रयोग किये जा सकते हैं, जो कि एक की प्रधानता के बाद संभव हो ही नहीं सकते।’
टैलेंट को दें तवज्जो
महिला एवं पुरुष दोनों के लिये समान अवसर होने जरूरी है। अगर सिर्फ किसी एक को ही बढ़ावा दिया जाए तो इसका मतलब यह है कि हम दूसरे के साथ ज्यादती कर रहे हैं। इसके अलावा यह मंशा उभरकर आयेगी कि हम उस लिंग की तरक्की देखना ही नहीं चाहते। जिस तरह समाज और देश का भला तभी हो सकता है कि इसे गढ़ने में महिला एवं पुरुष दोनों का ही बराबर का योगदान रहे। इसी तरह दफ्तर पर भी यही बात लागू होती है। कम्पनी आगे तभी बढ़ सकती है कि जब पुरुष और महिला जैसा कोई भेद-भाव न हो। विशेषज्ञ साफ और स्पष्ट शब्दों में यह कहते हैं कि ‘टैलेंट मैनेजमेंट’ तभी हो सकता है जब दोनों लिंगों की बराबर उपयोगीता बनी रहे। सिर्फ मेल डोमिनेंस भी प्रगति के लिए खतरनाक है और सिर्फ फीमेल डोमिनेंस भी सोसाइटी को भयावह स्थिति तक पहुंचा सकता है।